राजऋषिसंत पीपाजी की सामाजिक चेतना

वीरता की अभिव्यक्ति का माध्यम केवल युद्ध करना ही नहीं होता, अपितु यह अभिव्यक्ति जनसेवा, सच्ची भक्ति साधना तथा विराट सामाजिक चेतना जाग्रत करने के माध्यम से भी होती है। पश्चिम भारत के मध्ययुगीन भक्तिकाल में महान समाज सुधारक राजर्षि संत पीपाजी ने अपनी उक्त प्रकार की सेवा व चेतना भावना से यह सिद्ध कर दिखाया कि समाज और भक्तिसुधार की कर्ममयी भावना ऐसी भी हो सकती है जिसके करने से व्यक्ति सदैव के लिये काल, कर्म जैसे शत्रुओं के लिये अपराजेयी हो जाये।



राजस्थान के झालावाड़ जिला मुख्यालय के निकट आहू और कालीसिन्ध नदियों के संगम पर बना प्राचीन जलदुर्ग गागरोन संत पीपाजी की जन्म और शासन स्थली रहा है। पीपाजी, खीची राजवंश के एक छत्र शासक थे। इसी नदी संगम पर उनकी भक्ति साधना की गहन गुफा, समाधि और विशाल आश्रम एवं मंदिर है। उनका जन्म 14वीं सदी के अन्तिम दशकों में गागरोन के खीची चौहान राजवंश में हुआ था। वे यहाँ के वीर, धीर व कुशल शासक थे। शासक रहते हुए उन्होनें कई शत्रुओं से लोहा लेकर विजय प्राप्त की थी परन्तु युद्धोन्माद, हत्या, रक्तपात तथा जल से जमीन तक के रक्तपात को देखकर उन्होनें तलवार तथा गागरोन की राजगद्दी का त्याग कर दिया था। इसके पश्चात् उन्होनें काशी जाकर स्वामी रामानन्द का शिष्यत्व ग्रहण किया और वे संत कबीर, संत रैदास, संत धन्ना, संत सैन के गुरू भाई बने।


संत पीपाजी का जीवन चरित्र देश के महान समाज सुधारकों में एक नायाब नमूना है। उनकी समाज सुधार की सुन्दर विचारधारा और अद्वितीय कर्म भावना के कारण ही वे कई भक्तमालाओं के आदर्श महापुरूष बनकर लोकवाणियों में गाये गये। संत पीपाजी ने अपनी पत्नि सीता सहचरी के साथ राजस्थान में भक्ति एवं समाज सुधार की चेतना का अलख जगाने का विलक्षण कार्य किया। उन्होनें उत्तरी भारत के सारे सन्तों को राजस्थान के गागरोन में आने का न्यौता दिया। स्वामी रामानंद, संत कबीर, संत रैदास, संत धन्ना सहित अनेक सन्तों की मण्डलियों और धर्म यात्रा संघो का पहली बार राजस्थान की धरती पर आगमन हुआ और युद्धों, वर्गो तथा धर्म आडम्बरों और भेदभावों में उलझते राजस्थान में भक्ति और समाज सुधार की एक महान क्रान्ति चेतना का सूत्रपात हुआ। पीपाजी और सीता सहचरी ने उसी समय अपना समस्त राज्य, वैभव त्याग कर गागरोन से गुजरात (द्वारिका) तक संतो की धर्म यात्रा का नेतृत्व किया। वहां उन्होंने परदुःख का तरता, परपीड़ा तथा परव्याधि की पीड़ा की अनुभूति करने वाली वैष्णव विचारधारा को जन-जन के लिये समान भावों से सिद्ध किया। कालान्तर में गुजरात के सुप्रसिद्ध भक्त नरसी मेहता ने उनकी इसी महान विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित होकर "वैष्णव जन तो तेने कहिये रे, पीर पराई जाणै रे" पद लिखा जो महात्मा गांधी के जीवन में भी प्रेरणादायी सिद्ध हुआ।


भक्त शिरोमणि मीराबाई संत पीपाजी की भक्ति साधना से बड़ी प्रभावित थी तभी तो उन्होने लिखा “पीपा को प्रभू परच्यौ दिन्हौ, दियो रै खजानापूर" वहीं भक्तमाला लेखन की परम्परा का प्रर्वतन करने वाले नाभादास ने पीपाजी के उदात्त्ज्ञा जीवन चरित्र पर देश में सर्वप्रथम "छप्पय' की रचना कर उन्हें बड़ा सम्मान दिया।


मध्यकाल में देश की सामाजिक स्थिति विषमतापूर्ण हो गयी थी। भृत्यों ने स्वामियों को पकड़ लिया। धर्म तथा सच्ची भक्ति रसातल की ओर जाने लगी। पण्डित मठाधीश हो गये। खलों ने सज्जनों को पराभूत कर दिया। जाति, वर्ण में भेद हो गये। अधम उत्तम का कोई पारखी नहीं रहा। ऐसे समय में विशेषकर अपने गुरू स्वामी रामानन्द की आज्ञा से शिष्य पीपाजी ने पश्चिम भारत को संभाला और अपनी भक्ति साधना, आत्मविश्वास, साहस और निर्भिकता के साथ प्राचीन और रूढ़ मान्यताओं व अवधारणा को तोड़कर समाज में चेतना जगाने में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की। उन्होने पूर्ण समर्पित भावों से सपत्निक गांव-गांव, बस्ती-बस्ती पैदल घूमकर ब्रह्मज्ञान, नैतिक तथा समन्वय भावों का अलख जगाया, जो उनके निम्न विचारों और वाणियों से प्रामाणित होता है। निम्न बिन्दुओं के माध्यम से हम उनकी सामाजिक अन्तश्चेतना को देखेगे।


1. जातिपाति का खण्डन- संत पीपाजी जीवमात्र की समानता के प्रबल पक्षधर थे। उनके मतानुसार ईश्वर के समक्ष सभी जीव समाज में समान है। 'ईश्वर के दरबार में छोटे-बड़े तथा राजा रंक का कोई भेदभाव नहीं है।' उनकी वाणी में यह बात पता चलती है


सन्तो एक राम सब माही।


मन उजियारो। आन न दीखे काही ।टेक।


एकै धाम रूचिर अर सांसा। छोट मोट तन माही।।


एकै मारग तें सब आया। एकै मारग जाही।।


एकौ माता-पिता सबही के। विप्र छद्र कोई नाही।


पीपौ जो जन भरम भलाने। तैढुलरात सदा ही।


उनका मानना है कि- 'विप्र-शुद्र सब एक ही मार्ग से आये हैं तथा सभी के माता-पिता भी एक है तो भेदभाव किसलिये?' परन्तु यह बात उन्होंने केवल वैचारिक धरातल पर ही नहीं की वरन् उन्होनें इसकी क्रियान्विती भी करके दिखायी। इस आशय का उदाहरण इस प्रकार है- दौसा में एक बार वे रंगजी नामक भक्त के निवास पर थे, उसी दौरान गोबर की तलाश में दो स्वपच (शुद्रा) स्त्रियां वहां आयी। पीपाजी ने उन्हें बुलाकर तथा अपने पास बैठाकर उनसे कहा- “तुम मानव काया पाकर भी उसका दुरूपयोग कर रही हो, जिस शरीर से दिव्य प्रेमरत्न धन संचय करना चाहिये, उसी से गोबर कुड़ा करकट संसारी विषयों का संग्रह कर रही हो। तुम अपना सब कुछ ईश्वर भक्ति को अर्पण कर दो।" पीपाजी के इन उपदेशों का उन शुद्रा महिलाओं पर त्तकाल ऐसा प्रभाव हुआ कि वे सर्वस्व त्याग कर भक्ति मार्ग में अग्रसर हो गयी। यह घटना संत पीपाजी के जाति पाति के खण्डन तथा समाज समन्वय के सिद्धान्त की महान क्रियान्विती को प्रकट करती है, जो तत्कालीन समाज में एक अद्वितीय समाजोत्थान समन्वय की पहल थी।


2. मूर्ति पूजा के प्रति अविश्वास - उनकी मान्यता है कि- "जब ईश्वर समाज के सभी प्राणियों में परिव्याप्त है तब ऐसी स्थिति में किसे त्यागा जाए और किसे पूजा जाये?" उनके अनुसार- "जो मूर्ति स्वयं ही नश्वर है उसकी क्या पूजा की जाये?" उनकी मान्यता है कि- “पूजा तो उस अलख निरंजन, अविगत और अविनाशी परमतत्व की करनी चाहिये जो समूची मानवता का परम स्त्रोत है।" अतः सार तो ईश्वर की उपासना मात्र में है, उसके प्रकारों के भ्रमजाल में उलझने से नहीं। अन्ध धार्मिकता के प्रति उनका खण्डन स्पष्ट है। अपनी वाणी के माध्यम से उन्होने साफसाफ कहा कि- "कलियुग मे यदि (संत) कबीर न होते तो लोक की मिथ्या धारणायें तथा कलियुग की अन्धविश्वासी मान्यताएं मिलकर सच्ची भक्ति को रसातल में पहुंचा देते''


जै कलि नाम कबीर न होते।


तौ लोक बेद अरू कलिजुग मिलि करि। भगति रसातलि देते ।।


एवं


भगति प्रताप राखिए कमनि। निज जन आप पढ़ाया।।


नाम कबिरा साच प्रकास्या। तहाँ पीपै कछु पाया।।


3. सच्चे गुरू की महत्ता- संत पीपाजी ने समाज को सही दिशा निर्देश के साथ भक्ति साधना के निर्देश हेतु सच्चे गुरू की महत्ता एवं अनिवार्यता को अत्यावश्यक माना है। उनका मानना था कि"सच्चा गुरू वही है जो सभी समाज, धर्म में समन्वय भाव रखता है।" उनके मतानुसार- “परमतत्व को सदगुरू की सहायता से ही यर्थात् रूप में अनुभूत किया जा सकता है।"


सद्गुरू साँचा जौहरी, परसे ज्ञान कसौट।


पीपा सुघोई करे, दे अणभेरी चोट।।


लोह पलट कंचन करियो, सतगुरू रामानन्द।


पीपा पद रज है सदा, मिट्यों जगत को फन्द।।


सुआरथ के सब मितरे, पग पग विपद बढ़ाय।


पीपा गुरू उपदेस बिनु, साँच न जाण्यो जाय।।


4. श्रम साधना और कर्म का महत्व - अपनी दृढ़ सामाजिक चेतना शक्ति से पीपाजी ने चर्तुवर्ण के प्रतिरोध स्वरूप एक नवीन और पांचवा वर्ण सृजित किया जिसमें श्रम की प्रघानता, कर्म का महत्व और हिंसा तथा युद्ध का त्याग था। उन्होनें इस नवीन पांचवें वर्ण को 'श्रमिकवर्ण' नाम दिया, जो ब्राह्मणो, क्षत्रियों, वैश्यों और शुद्रों के मध्य का था। यह एक ऐसा नवीन सामाजिक वर्ण था जिसमें ऊंच नीच तथा जाति बन्धन पूर्णतया मुक्त थे। यह नवीन वर्ण नित्य प्रति श्रम कर्म करते हुए मुख से परात्पर राम का उच्चारण करता तथा समाज में सौहार्द से रहता था। पीपाजी का यह मौलिक सामाजिक कार्य उस युग में वास्तव में चर्तुवर्ण परम्परा के विरूद्ध एक प्रतिरोधात्मक आन्दोलन था जिसमें कतिपय वर्ण- व्यवस्था, में सुधार और परिवर्तन किया गया था। उनकी वाणी में इस आशय की अनूगूंज है -


हाथ से उद्यम करे, मुख सौ ऊचरै राम।


पीपा साधा रो धरम, रोम रमारै राम।।


वे सामाजिक चेतना में समन्वय के महान आख्याता इसलिये है कि उन्होनें उस ब्रह्म से साक्षात्कार कराया जिसकी खोज में बंधा मानव आजीवन भटकता है। उन्होने समाज को सच्चे अर्थों में ब्रह्म के स्वरूप की पहचान पर जोर देते हुए कहा कि 'उस ब्रह्म की पहचान तो स्वयं उसके मन में अनुभव करने से है'


उण उजियारा दीप की, सब जग फैली ज्योत।


पीपा अन्तर नैण सो, मन उजियारा होत।।


5. रूढ़ियों का दृढ़ विरोध - पीपाजी की सामाजिक चेतना में रूढ़ियों की समाप्ति का कार्य अति महत्वपूर्ण है। उस युग में यह भी कम आश्चर्यजनक घटना नहीं थी कि पीपा जी के साथ ही उनकी जीवन सगिंनी भी सन्यास लेकर साध्वी बनी। इतना ही नहीं रानी सीता सौलंकी ने अपने संत पति का साथ देकर समाज के पतिव्रत धर्म का अच्छी प्रकार निर्वाह किया। यह वह युग था जब यवनों द्वारा महिलाओं पर अत्याचार, व्याभिचार हो रहे थे और राजपूतों में सर्वाधिक पर्दाप्रथा थी। उसी समय पीपाजी ने अपनी पनि सीता सहचरी की पर्दा प्रथा सर्वप्रथम तोड़कर समाज में यह प्रामाणित किया कि- “जिसमें आत्मबल, समाज सेवा और ईश्वर भक्ति के सच्चे भाव है, उन्हें पर्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है।" वास्तव में सैकड़ो बरसों पूर्व का यह एक ऐसा अद्वितीय समाज सुधार था जिससे नारी समाज में जागृति और इच्छा शक्ति के भाव उत्पन्न हुए जिस कारण उन्होनें (महिलाओं) आवश्यकता होने पर युद्ध व संघर्ष कर स्वरक्षा ही नहीं की वरन् अनेक राज्यों का शासन भी सफलता पूर्वक संचालित किया। इस बारे में पीपाजी ने अपनी वाणी में भी कहा है -


जहां पडदो तहां पाप, पड़दो बिन पावै नाहीं।


जहां हरी हाजर आप, पीपा तिहो पड़दौ किसौ।।


समाज की रूढ़ि में पीपाजी के इस कार्य की महत्ता पर प्रसिद्ध सामाजिक विचारक मैक्स आर्थर मैकालिफ ने सुन्दर टिप्पणी fora - "Probably the first effort in modern time in India to abolish the tyranny of the Parda by Pipa" बाद में पीपाजी ने आजीवन सीता सहचरी को बिना पर्दे के ही समाज में सार्वजनिक रूप से रखा जबकि उस युग में राजपूतों में घोर पर्दा प्रथा का प्रचलन था तथा उस प्रथा को तोड़ना कोप का भागी बनना था।


6. समाज चेतना - पीपाजी के जीवन की सबसे बड़ी सामाजिक विशेषता यह है कि वे समाज सुधार व सच्ची भक्ति साधना का आख्यान करने के लिए राजा होते हुए अपना सर्वस्व वैभव त्याग कर संत बने। भारतीय मध्ययुगीन इतिहास के पन्नों में इस प्रकार का पहला और दुर्लभ उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिलता। पीपाजी जिस खींची चौहान क्षत्रिय जाति के थे, उसमें युद्ध की प्रधानता थी। उनके गुरू स्वामी रामानन्द का विचार यह था कि उन्हें उनके वैष्णव आन्दोलन में उस समय के पीड़ित शोषित वर्ग, अन्त्यजो के कल्याण तथा राजपूतों के कल्याण के लिये एक वीर और आदर्श शिष्य की आवश्यकता थी। क्योंकि विशेष रूप से राजपूत शासन करने और मारकाट करने में सबसे आगे थे। मध्ययुग में सत्ता हाथ से जाने के बाद भी वे लड़ने झगड़ने में सबसे आगे थे। मध्ययुग में सत्ता हाथ से जाने के बाद भी वे आपस में लड़ते और शोषण करते पाये जाते थे - विशेषकर यह बड़ी समस्या उत्तरी भारत (राजपूताना-गुजरात-सौराष्ट्र-मालवा) में थी। अतः यह समस्या कैसे सुलझाई जाये, यह विडम्बना भी थी। इसी समय उस समस्या को सुलझाने के लिये उन्हे योग्य शिष्य पीपाजी मिल गये, जिन्होने गुरू के निर्देश पर उस क्षेत्र के अनेक राजपूत राजाओं, सरदारों को भक्ति मार्ग मे दीक्षित करके समाज सुधार, समन्वय कार्यों की ओर मोड़ दिया। इससे समाज में शांति - सहभागिता स्थापित हुई और नवीन सामाजिक चेतना का उद्भव हुआ। स्वयं पीपाजी ने कटे-फटे वस्त्रों की सिलाई का कार्य कर समाज में स्वावलम्बन की भावना को विकसित किया।


7. दुर्व्यसन की भर्त्सना - पीपाजी समाज में व्यक्ति के आचरण व जीवन मूल्यों के विघटन के प्रति बड़े सजग और जागरूक थे। वे नशीली वस्तुओं के सेवन, मांसाहार को वर्जित कर्म मानते थे। उन्होंने इन दुर्व्यसनों से दूर रहने की महत्वपूर्ण बात भी की -


जीव मार जीमण करै, खाता करै बखाण।


पीपा परतख देख ले, थाली मांहि मसाण।।


पीपा पाप न किजिये, अलगौ रहिये आप।


करणी जासी आपणी, कुण बैटो कुण बाप।।


उन्होने दृढ़ता पूर्वक समाज के उन संतो की भी तीव्र भर्त्सना की जो मठाधीश बनकर व वैभवशाली वस्त्र धारण कर मन में कपट रखते हैं। उन्होंने कबीर की भांति ऐसे संतो के मुख पर कालिख पोतने की बात का भी खुलकर समर्थन किया -


पीपा जिनके मन कपट, तन पर उजरौ भैस।


तिन को मुख कारौ करो, संत जनां का लेख।


उन्होने सामाजिक समन्वय की मिसाल हरे भरे गुलदस्ते से दी। उन्हें अपने देश से अथाह स्नेह था। इस देश की मिट्टी को अपनी आंखों का काजल बनाकर उन्होंने सदियों पहले भारत की बहुरंगी छवि को देखकर बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति की थी


फूल बगीचा में धणा, सबरो सुन्दर रूप।


पीपा जद मिल सब छबै, भासै रूप अनूप।।


8. यत्पिडेत्तब्रह्माण्डे का सूत्र - संत पीपाजी समाज में फैले बाहरी आडम्बरों, थोथे कर्म काण्डों, रूढ़ियों के प्रबल विरोधी थे। उनका मानना था कि- “ईश्वर निराकर, निर्गुण है, वह बाहर भीतर, घटघट में व्याप्त है। वह अक्षत है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में व्याप्त है।' उनके अनुसार- "मानव मन (शरीर) में ही सारी सिद्धियां और वस्तुएं व्याप्त है।" उनका यह विराट चिन्तन 'यत्पिण्डेत्तब्रह्माण्डें' के विराट सूत्र को मर्त करता है और तभी वे अपनी काया में ही समस्त निधियों को पा लेते हैं। फिर किसी बाहरी मंदिर या तीर्थ, पूजा की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। पवित्र गुरूग्रन्थ साहिब में समादृत गागरोन की इस महान विभूति का यह पद इसी भावभूमि पर खड़ा हुआ भारतीय भक्ति साहित्य का कण्ठहार माना जाता हैः


अनत न जाऊ राजा राम की दुहाई।


काया गढ़ खोजता मैं नौ निधि पाई।।


काया देवल काया देव, काया पूजा पांति।


काया धूप दीप नइबेद, काया तीरथ जाती।।


काया माहै अड़सढि तीरथ, काया माहे कासी।


काया माहै कंवलापति, बैकुंठवासी।।


जै ब्रह्मण्डे सोई प्यंडे, जै खोजे सो पावै।


पीपा प्रण वै परमत्तरै, सद्गुरू मिले लंखावै।।


पीपाजी ने समाज के लोकव्यापी समन्वय के लिये अनेक पदों तथा विचारों में अनुपम अभिव्यक्ति दी जो आज भी प्रासंगिक है। अतः यह कहना असंगत न होगा कि संत पीपाजी का रचना संसार लोक मंगल, सामाजिक चेतना तथा भक्ति साधना के सच्चे भावों पर आधारित है। आज जब धर्म, नस्ल, जाति, क्षेत्र जैसे तमाम भेदों को गहराकर मानवता विरोधी ताकतें सक्रिय है, ऐसे में महान् संत पीपाजी की विचारधारा और वाणी की राह ही हमें समन्वयता और अखण्ड मानवता के पक्ष में ले जा सकती है।