बनजारों के खान-पान

औरंगाबाद के निकट एक टांडे में लेखक ने देखा 35-40 आदमियों की पंगत जब भोजन के लिए बैठ गई, तब दस-बारह बनजारिने दराणी पर दोनों हथेलियों से पेड़ी बेलने लगी। छह चूल्हे एक साथ पास जल उठे इन पर तवे की जगह औधाकर छोटी कढाइयाँ रखी गई। हर कढाई पर तीन-चार रोटियाँ आसानी से सिकरही थीं। प्रत्येक चूल्हे पर सेकने वाली स्त्रीअलगथी। बेलने और सेकने वाली महिलाओं में होड़ लगी थी। ये रोटियाँ आग पर नहीं सिकतीं। औंधे तवे अथवा कढ़ाई पर जब रोटियाँ सिकने को होती थीं, एक महिला बारी-बारी से सब जगह थोड़ा तेल डाल देती थी। जब तक बरातियों को साग-पानी परोसा गया, तब तक गरम-गरम रोटियाँ भी पहुंच गई। ये रोटियाँ पराठों को पराजित कर रही थीं।



मुख्य आहार 


दक्षिण भारत में बनजारा टांडा कहीं रहता हो, आहार के मामले में उसने पड़ौसी लोगों का प्रभाव अधिक स्वीकार नहीं किया। खाद्य पदार्थों में उसकी रुचि आज भी राजस्थानवासियों को रुचि से भिन्न नहीं है। राजस्थान की सामान्य जनता मोटा खाती और मोटा पहनती है। बनजारे भी खाने पहनने में इसी नीति का अनुसरण करते हैं। रुचि के अतिरिक्त संभवतः विपन्नता ने भी ॥ इन्हें इसके लिए विवश किया है।


आंध्र प्रदेश के बहुत बड़े हिस्से में बनजारों का मुख्य खाद्यान्न बाजरा है। जहाँ बाजरा नहीं मिलता वहाँ मक्का का उपयोग होता है। महाराष्ट्र में बाजरे के अतिरिक्त जवार भी मुख्य खाद्यान्न का स्थान ले चुकी है। राजस्थान में जाड़े के दिनों में बाजरे का खिचड़ा चाव से खाया जाता है। वहाँ खिचड़ी के साथ यथेच्छा घी और कहीं-कहीं सरसों का तेल खाते हैं राजस्थान के शहरों में रहनेवालें बनजारे गेहूँ की रोटी खाते है। गाँव के किसान बाजरा तथा गेहूँ और जव से मिली रोटी खाते हैउदयपुर बांसवाड़ा के निवासी मक्का तथा ज्वार की रोटी खाते है। तली हुई गबार की फली और टीट बाजरे के खिचड़े के साथ खाते हैं। यदि कढी का जुगाड़ भी बैठ जाए तो क्या कहने! राजस्थानी तब अमृत की इच्छा भी नहीं करेगा। राजस्थान की एक अन्य कहावत के अनुसार जाड़े की माँ भी बाजरे का खिचड़ा खाना चाहती है।


आन्ध्र के बनजारे जाडों में ही नहीं गर्मियों में भी सवेरे खिचड़ा खाते हैं। लेखक नेटांडों में देखा है, तड़के ही घर के बालक आंगन बुहारते हैं, आंगन का गोबर एक आंगन बुहारते हैं, आंगन का गोबर एक जगह जमा करके कड़ी में डालते हैं। औरतें अंधेरे-अंधेरे पानी के लिए कुएँ पर जाती हैं। पानी लाते ही रात में भिगाये हुए बाजरे को ऊखल में डाल कर मूसल से कूटती हैं। मुसल की चोट और मुंह से निकलनेवाली हुमक से पूरा टांडा गूंजने लगता है। अधभीगा बाजरा अच्छी तरह कुट जाता है तो छाज से पछाड़कर बाजरे का छिलका उड़ा दिया जाता है। धीमी आँच पर मिट्टी की हांडी में खिचड़ा पकता है। जब तक बनजारा प्रातः क्रियाओं से निवृत होकर घर लौटता है, खिचडे की परोसी थाली उसके सामने। बालक-युवा-बूढ़े सभी गरम-गरम खिचड़ा खाकर काम पर चल देते हैं। गाय-बैल चराने के लिए बालक, हल बाहने के लिए युवा और रखवाली के लिए बुढ़े। खिचड़ा भारी कलेवे का काम करता है, खाने के बाद दोपहर तक भूख नहीं लगती। अधिकांश बनजारे गरीब है, अतः उनका खिचड़ा घी का योग नहीं परता। बाजरा न हो तो मक्का का दलिया कलेवे में परोसा जाता है।


 बनजारों के लिए गेहूँ उत्सव, पर्व अथवा आतिध्य का अन्न है। विवाह तथा विशेष अवसर पर गेहूँ की रोटी बनती है, किन्तु बनजारों की रोटी सामान्य रोटी से भिन्न होती है। नमक मिलाकर गेहूँ का आटा ओसना जाता है। खूब लोच देकर भीगे आटे को दो घंटे तक ढंक कर रख देते हैं। दोनों हाथों में तेल लगाकर भीगे आटे की पेडी वराणी पर रखते हैं। दराणी कपड़े का टुकड़ा होता है, जिस पर कसीदे का सुन्दर काम किया जाता है। दराणी पर पेड़ी रखकर उसे दोनों हथेलियों के दबाव से फैलाते हैं। धीरे- धीरे पेड़ी दो फुट की गोल और पतली रोटी में बदल जाती है। चूल्हे पर उल्टा तवा रखकर इस रोटी को सेकते हैं। सेकते समय तेल या घी का उपयोग भी होता है। गेहूँ की रोटी को तवे से उतारकर आग पर नहीं सेकते। औरंगाबाद के निकट एक टांडे में लेखक ने देखा 35-40 आदमियों की पंगत जब भोजन के लिए बैठ गई, तब दस-बारह बनजारिने दराणी पर दोनों हथेलियों से पेड़ी बेलने लगीछह चूल्हे एक साथ पास जल उठे इन पर तवे की जगह औधाकर छोटी कढ़ाइयाँ रखी गई। हर कढ़ाई पर तीन-चार रोटियाँ आसानी से सिक रही थीं। प्रत्येक चूल्हे पर सेकने वाली स्त्री अलग थी। बेलने और सेकने वाली महिलाओं में होड़ लगी थीये रोटियाँ आग पर नहीं सिकतींऔंधे तवे अथवा कढ़ाई पर जब रोटियाँ सिकने को होती थीं, एक महिला बारी-बारी से सब जगह थोड़ा तेल डाल देती थी। जब तक बरातियों को साग-पानी परोसा गया, तब तक गरम-गरम रोटियाँ भी पहुंच गई। ये रोटियाँ पराठों को पराजित कर रही थीं


बाटी


बनजारों की बाटी राजस्थान की बाटी से भिन्न होती है। जवार, बाजरे अथवा मक्का की मोटी रोटी को ये लोग बाटी कहते हैं।



गलवाणी


गलवाणी बनजारों का प्रिय चोष्य है। गलवाणी राजस्थान की गुडवाणी का परिवत्तित रूप है। गुडवाणी से इसमें अधिक चीजें गिरती हैं। पहले एक बर्तन में गुड को पानी में अच्छी तरह घोलते है। गुड को कोई डली शेष न रहने पर उसे अच्छी तरह औटाते हैं। एक चूल्हे पर गुड का पानी गरम होता है, दूसरे चूल्हे पर आटा सेकते हैं। आटा जब अच्छी तरह सिक जाता है तो गुड का पानी उसमें डाला जाता है। पानी इतना अधिक होता है कि आटा हलवे में नहीं बदलता। जब गलवाणी तैयार हो जाती है, उसमें पिसी हुई इलायची, दालचीनी और काली मिर्च डालते हैं। घियाकस से कसकर थोड़ा खोपरा बुरखते हैं। गलवाणी की सुगन्ध दूर-दूर तक पहुँच जाती है। सुगन्धित पदार्थों के डालने के बाद भी गलवाणी को दो-तीन उबाल और देते हैं।


राबड़ी 


हरियाणा और राजस्थान में एक खाद्य- पदार्थ राबड़ी कहलाता है। जिस दिन माता की बासी रोटी बनती है, उस दिन राबड़ी अनिवार्य रूप से रँधती है। गर्मी के दिनों में अमीर-गरीब सभी राबड़ी का कलेवा करते हैं। गरीबों के लिए राबड़ी वरदाना ही समझिए। बाजरा, जौ या मक्के के मोटे आटे से राबड़ी बनती है। पहले आटे को छाछ में अच्छी तरह घोलते हैं, फिर उसे चूल्हे पर चढ़ाते है। मिट्टी की हाँडी में राबड़ी अच्छी बनती है। राँधने के बाद रात में उसे यों ही रख देते हैं। गरम-गरम राबड़ी दूध डालकर खाते हैं। सवेरे ठंडी राबड़ी में इतनी छाछ मिलाई जाती है कि उसे आसानी से पिया जा सकता है। महाराष्ट्र के बनजारे राबड़ी बनाते हैं, किन्तु वह राजस्थान-हरियाणा की राबड़ी से भिन्न होती है। बनजारों की राबड़ी एक तरह की कढ़ी है। राजस्थान तथा अन्यत्र बेसन से कढ़ी बनती है, किन्तु दक्षिण के बनजारे बेसन की जगह मूंग का आटा काम में लाते हैं। बनजारे राबड़ी (कढ़ी) में हरा धनिया, हरीमिर्च तथा पोदीना भी डालते हैं। बेसन की कढ़ी की अपेक्षा बनजारों की राबड़ी अधिक स्वादिष्ट होती है।


विशेष अवसरों पर बनने वाले प्रमुख व्यञ्जनों के नाम हैं-कढ़ाबो, कढ़ाई, कुल्लर, धमोला, गुंजा, सुनवाली। गेहूँ का दलिया कढ़ावा कहलाता है। गेहूँ के दरदरे आटे का पहले घी में भूनते हैं। फिर उसमें शकर तथा पानी डालते है। अधिक आटे का दलिया हो तो कढ़ावा थोड़े, से आटे का हो तो कढ़ाई। कढ़ावों या कढ़ाई देवी-देवताओं के लिए बनते हैं। थोड़ा-सा दलिया आग पर डालकर जोत देखते हैं। राजस्थान में इस तरह की कढ़ाई हलवा या सीरे की होती है।



सामिष भोज्य-पदार्थ


मथुरा लोगों के एक वर्ग को छोड़कर पूरा बनजारा-समाज मांसाहारी है। कोई बनजारा व्यक्तिगत कारणों से ही निरामिष रहने का व्रत लेता है। बनजारा-समाज के लोग बकरे और भेड़ के मास को अधिक पसन्द करते हैं। धार्मिक समारोह बिना बकरे की बलि के सम्पन्न नहीं होता। सामूहिक रूप से भी बकरे की बलि लगती है। बकरा न हो तो मुर्गा।


तेज मसाले डालकर तैयार किये गये सामिष भोज्य-पदार्थो के साथ बीच-बीच में गलवाणी की गरम-गरम चूट। रात चाँदनी हो तो बनजारा खुले में भोजन करना चाहता है। चाँदनी रात में सामिष भोजन और गलवाणी साथ में, फिर तो बनजारे के लिए इस धरती पर कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रहता


बोटी-मांस के छोटे टुकड़ों को घी में भूनकर मसाले डाले जाते हैं। बोटी मे मांस के अतिरिक्त तरकारी तथा कोई दूसरी चीज नहीं डाली जाती।


 लगावण-रस्सेदार मांस। इसका उपयोग साग की तरह किया जाता है। कुछ लोग लगावण केवल मांस से बनाते हैं, कुछ इसमें घिया, तुरँई या ऐसा ही कोई दूसरा साग डालते हैं।


नारेजा-मांसाहारी देवी-देवताओं के लिए केवल हल्दी और नमक डालकर जो मांस पकाया जाता है, उसे नारेजा कहते हैं। देवी या देवता को भोग लगाने के बाद नारेजा टाँडे के निवासियों में प्रसाद की भाँति बाँटा जाता है। सलोई-अंतड़ी, फेफड़ा, कलेजा तथा था अन्य कुछ अंगों के मांस-खण्डों के मिश्रण से सलोई बनाई जाती है। वध के समय पशु का रक्त एक पात्र में रख लेते हैं। सलोई पकाते समय कुछ लोग उसमें थोड़ा खून भी डालते हैं।


धुंडी वालो हाड़का-पशु के शरीर से कुछ हड्डियाँ निकालकर छोटे-छोटे टुकड़े किये जाते हैं, किन्तु बड़ी हड्डी को साबित रखते हैं। यह बड़ी हड्डी नायक को मिलती है। यदि यह हड्डी नायक को नहीं दी गई तो समझा जाता है, सम्बन्धित परिवार ने नायक का अपमान किया है। कई बार इस हड्डी के कारण टाँडे में वैमनस्य उत्पन्न होता है


पेय


बनजारा समाज के सभी वर्ग नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं। कुछ मथुरा लोग व्रत के रूप में मादक, द्रव्यों का परित्याग करते हैं। बनजारा-समाज को नशीले पदार्थों में शराब अधिक पसन्द है। बनजारों के टाँडे सामान्यतया बस्ती से कुछ दूर, साधारणतया मी जाती थी का जंगल में फैले हुए हैं। अंग्रेजों के शासन- काल में भी यह शिकायत सुनी जाती थी कि बनजारे आबकारी कानून की अवहेलना करते हैं। इन दिनों व्यवस्थित समाज के अनेक वर्गो की भाँति बनजारों में भी अवैद्य ढंग से शराब बनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। वस्तुतः सरकार ने सुरा-निर्माण के पराम्परागत अधिकार से वंचित करके आदिम जातियों को अपराधशील बनाया है। आदिम जातियों को अपराधशील बनाया है। आदिम जातियों में आरम्भ से ही सुरापान प्रचलित रहा है। उनका कोई संस्कार अथवा पूजन-अर्चन शराब के बिना सम्पन्न नहीं होता। विवाह, पुत्र-जन्म तथा इसी प्रकार के हर्षदायक अवसरों की साक्षी रिक्त सुरापात्र देते रहे हैं। नृत्य आदिम जातियों के जीवन का अभिन्न अंग है और यह सुरा से अनुप्राणित होता है। सुरा-निर्माण पर प्रतिबन्ध लगाकर सरकार ने आदिम जातियों को चोरी-छिपे शराब बनाने के लिए बाधित किया है। यह बात उनके बूते से बाहर है कि वे बाजार से शराब खरीद कर पी सकें।


मृतक-संस्कार अथवा इस प्रकार के अन्य अवसरों पर जब कोई बनजारा-परिवार जाति-बान्धवों को सहभोज में आमन्त्रित करता है, तो भोजन से पहले सुरापान आवश्यक है, आन्ध्र की अपेक्षा महाराष्ट्र के बनजारों में शराब पीने की आदत अधिक है। इसका एक कारण तो यह है कि वहाँ के बनजारों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है। दूसरा कारण यह है कि वहाँ साडीयास आन्ध्र की भाँति नशे के लिए ताड़ी या सेंधी अधिक परिमाण में उपलब्ध नहीं है।


साडी या सेंधी 


आन्ध्र, कर्णाटक और तेलंगणा और तामिलनाडू में ताड़ी से और खजूर से बना एक पेय बहोत पिते है गाँव के लोग इसे सेंधी कहते है। तेलंगणा में इनकी दुकानें बहोत है। सायंकाल कुछ समय के लिए कलाल के यहाँ जाते हैं और सेंधी पीकर चुपचाप अपने घर लौट आते हैं। कुछ टाँडों में सन्ध्या होने से पहले ही कलाल सेंधी का घड़ा लेकर पहुँच जाता है। लोग पड़े के पास बैठकर पीते हैं और दस-पन्द्रह मिनिट बाद चले जाते हैं।


भाँग तथा घोटा 


बनजारे दक्षिण में आने से पहले भांग के शौकीन थे। दक्षिण भारत के दूर-दराज स्थानों पर भांग आसानी से नहीं मिल सकती, इसी लिए विजया का स्थान सेंधी (ताड़ी) ने ले लिया है। आज भी विवाह के अवसर पर लग्न से पहले कन्या-पक्ष "भाँग खिलाने" की प्रथा पूरी करता है। जब बरात वधू के पर पहुँचती है तो सन्ध्या को घोटा की रस्म आज भी प्रचलित है। भांग के अभाव में भी घोटा आवश्यक है। थोड़ी-सी इमली पानी में घोली जाती है। शक्कर तथा अन्य सामग्री डालकर पेय बनाया जाता है। इस पेय को 'घोटा' कहते हैं। घोटा के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी विवाह-संस्कार के साथ दी गई है