चन्देरी-खान पान की प्राचीन परम्पराएँ

आश्चर्य तो तब होता है कि हजारों वर्ष पूर्व लाल गेरू रंग, कहीं-कहीं हल्के रंग तो कहीं-कहीं गहरे लाल रंग से निर्मित शैलचित्रों को प्रकृति की मार, मौसम काउतार-चढ़ाव किर्चित मात्र भी प्रभावित नहीं कर सका है। उक्त टिकाऊ रंग देखकर निचित रूप से आप आदिमानव की बुद्धिमत्ता को दाद दिए बगैर नहीं रह सकेगें और अनायास मुँह से यह शब्द फूट पडेंगे वाह क्या बात है।



भारतीय परिवेश में प्रचलित विभिन्न परम्पराएँ भारतीय संस्कति की ।। अमूल्य पूंजी-अमूल्य धरोहर हैं, जिन्हें चारों ओर मान्यता प्राप्त हैसबसे बड़ी बात यह है कि उन परम्पराओं का हम मिल जुल कर पालन करते हैं, जिससे हमारी गंगा-जमुनी तहजीब को और अधिक बल मिलता है। देश-प्रदेश के विभिन्न अंचलों में निभाई जाने वाली परम्पराओं को देखें तो पाते हैं कि अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग परम्पराओं को अपनाए जाने का तरीका-सलीका पृथक-पृथक है। फिर क्षेत्र चाहे खानपान-व्यंजन अथवा भोजन रहा हो अथवा कोई अन्य। किसी भी समाज, समुदाय, सम्प्रदाय में प्रचलित परम्पराएँ, रीति-रिवाज उस समाज के अतीत को समझने का एक बेहतरीन माध्यम होकर जीवन के पहलुओं से जोड़ने वाली सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है।


आदि मानव युग में इंसान भरण पोषण कैसे करे, क्या खाए, क्या पिए, खाने-पीने की आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे हो इस क्रम में विचारणीय हैसर्वविदित तथ्य है कि प्रागैतिहासिक, उच्च पुरा पाषाण काल, मध्य पाषाण काल के अलावा ऐतिहासिक काल में आदि मानव जंगलों में, नदियों के किनारे प्राकृतिक रूप से निर्मित गुफाओं में निवास करता था। उस काल और परिस्थितियों के अनुसार आदि मानव उन गुफाओं को सर्वाधिक सुरक्षित भी मान्य करता था।




आदि मानव पेट की आग को किस प्रकार शांत करे इसके लिए उसने जंगलों में पाए जाने वाले फल-फूलों के अलावा भूमि में पाएँ जाने वाले कंद-मूल को अपने भरण-पोषण का जरिया बनाकर मानव विकास यात्रा को गति प्रदान की। अब प्रश्न यह आया कि भूमि में से कंद-मूल किस प्रकार निकाले जावें उसके लिए आदि मानव ने जंगलों में पाए जाने वाले पत्थरों को नुकीला बनाकर भूमि में से कंद-मूल निकालना प्रारंभ किया।


आवश्यकता अविष्कार की जननी है, यह सिद्धांत यहाँ भी लागू हुआ और आदिमानव ने जंगलों में विचरित जंगली जानवरों से अपनी सुरक्षा हेतु उक्त नुकीले पत्थरों से सुरक्षा कवच के रूप में उपयोग करना प्रारंभ कर दिया। बात यहीं समाप्त नहीं हुई, उक्त नुकीले पत्थरों से मात्र आदिमानव ने अपनी रक्षा ही नहीं की अपितु नुकीले पत्थरों से जंगली जानवरों का शिकार कर अपना पेट पालन कर मानवीय क्रिया-कलापों को जारी रखा।


सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जिन गुफाओं में आदि मानव निवास करता था, उन गुफाओं की चट्टानों पर वह अपनी भावनाओं को प्रदर्शित कर दिया करता था आदिमानव की उक्त भावनाओं को आज शैलचित्र अथवा शैलाश्रय के नाम से जाना-पहचाना जाता है।


शैलाश्रयों में दिखाई देते शैलचित्र आदि मानव के क्रिया-कलापों का एक ऐसा अतीतरूपी आईना है, जो हमें पाषाणकाल की सम्पूर्ण गतिविधियों से अवगत कराता है। आदि मानव जो सोचता था, वह जो भी आचरण प्रदर्शन करता था, उन सब को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने शैलाश्रय, जो मानव स्वभाव एवं उस समय के खान-पान का जीता-जागता उदाहरण हैं।



म.प्र. जिला अशोकनगर स्थित ऐतिहासिक एवं पर्यटन नगर चन्देरी एक ऐसा प्राचीन नगर है जो एक ओर महाभारत कालीन चेदि नरेश शिशुपाल की राजधानी के रूप में विख्यात है वहीं दूसरी और प्राचीन धरोहरों के लिए जाना-पहचाना जाता है। चन्देरी के निकटवर्ती जंगलों में एक स्थान पर नहीं अनेक स्थानों पर मसलन-पहाड़ों की चट्टानों पर, नदियों किनारे गुफाओं में शैलचित्र पाए गए हैं जो हमें हमारे अतीत का आईना दिखाते हुए पाषाणकाल में आदिमानव कैसे और क्या खाता-पिता था सम्पूर्ण जानकारी प्रस्तुत करते है।


आश्चर्य तो तब होता है कि हजारों वर्ष पूर्व लाल गेरू रंग, कहींकहीं हल्के रंग तो कहीं-कहीं गहरे लाल रंग से निर्मित शैलचित्रों को प्रकृति की मार, मौसम का उतार-चढ़ाव किचिंत मात्र भी प्रभावित नहीं कर सका है। उक्त टिकाऊ रंग देखकर निचित रूप से आप आदिमानव की बुद्धिमत्ता को दाद दिए बगैर नहीं रह सकेगें और अनायास मुँह से यह शब्द फूट पडेंगे वाह क्या बात है।


जहाँ तक शैलाश्रय में पाए गए शैल चित्रों का प्रश्न है सभी शैलचित्र विविधताओं से परिपूर्ण हैं। कहीं मानव विभिन्न प्रकार के पशुओं के पीछे भागता दिखलाई पड़ता है, कहीं जंगली जानवरों के पीछे भागता नजर आता है। कहीं-कहीं आदि मानव पशुओं का वध करने की मुद्रा में समझ आता है। एक गुफा में सामूहिक आखेट के दृश्य तो दूसरी ओर बहुकटीय हथियार बाँधे हुए हैं। जंगली जानवरों में मुख्यतः बारहसींगा, बाघ, हिरण, शेर आदि के चित्र अंकित है।


पशुओं के अलावा मानव आकृतियाँ भी विभिन्न मुद्राओं को दर्शाती हैं। जैसे चलते हुए, खड़े हुए, जानवरों का पीछा करते हुए, धनुष-बाण खींचते हुए। सब मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उक्त शैलाश्रय मानव खान-पान संस्कृति के समस्त आयामों को अपने आगोश में समेटे हुए है। साथ ही यह सिद्ध करने के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि पाषाणकालीन समय में यह क्षेत्र खान-पान की किस प्रकार की गतिविधियों में लिप्त रहा है।


एक हजार वर्षों से निरंतर आबाद वर्तमान चन्देरी को अपनी सामारिक श्रेष्ठता के कारण एक बार नहीं अनेकों बार न चाहते हुए भी युद्धों का सामना करना पड़ा चाहे वह गुलामवंश, खिलजीवंश, तुगलकवंश, मुगलवंश, राजपूतवंश, बुन्देलावंश इत्यादि रहे हो सबका असर इस नगर पर पड़ा और मिश्रित संस्कृति का उदय हुआ, जिसकी झलक आज भी प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है।


14-15वीं सदी में लखनौटि (पश्चिमी बंगाल) नामक स्थान से आए बुनकर मुस्लिम परिवारों का नगर में आना और स्थाई रूप से यही ठहर कर चन्देरी कपड़ा के रूप में मलमल का उत्पादन प्रारंभ करने के साथ ही खान-पान संस्कृति में एक नई परम्परा का जन्म हुआ जो निरंतर आज भी जारी है। मुस्लिम मोमिन से अपनी पहचान आज भी कायम किए हुए यह बुनकर परिवार ने चूंकि पश्चिमी बंगाल क्षेत्र से चन्देरी में प्रवासन किया था, अतएव उनका खान-पान भिन्न रहा जिसका प्रभाव चन्देरी में पूर्व से निवासरत मुस्लिम परिवारों पर भी पड़ा और नवीन खान-पान संस्कृति का जन्म हुआ।


 चूंकि मुस्लिम मोमिन बुनकर परिवार बंगाल क्षेत्र से आए हुए थे अतएव उनका मुख्य भोजन चावल था जिसे वह आज भी अपनाए हए हैं, यहाँ तक की शादी-विवाह में भी चावल-दाल का उपयोग किया जाता है। चन्देरी में चावल की पैदावार होती है अतः नगर में ही उत्पादित चावल का उपयोग किया जाता था।


पूर्व में चन्देरी में उत्पादित चावल की किस्म मुख्यतः लांजी, बासमती एवं रामकेर नामक चावल बहुत पसंद किया जाता रहा। जानकारी मिलती है कि पहले उक्त किस्म के चावल को मिट्टी से निर्मित बड़े पात्र जिसे स्थानीय स्तर पर कनारी कहा जाता है, जमीन के अंदर रखकर उस में चावल भर दिए जाते थे, बाद में कनारी नामक पात्र को इस प्रकार ढक दिया जाता था कि उसमें हवा प्रवेश न करे सकें।


एक वर्ष अथवा दो वर्ष पश्चात उसे खोला जाता था तो चावल पीला रंग धारण कर लेता था जिसे स्थानीय स्तर पर सार पड़ना कहा जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि चावल बेहतरीन स्वादिष्ट हो जाता है। वर्तमान में ऊपर वार्णित चावल की किस्म के साथ अन्य किस्म के चावल की पैदावार नगर में जारी है जिसका उपयोग एवं उपभोग किया जा रहा है। परिवारिक स्तर पर अथवा शादी-विवाह के शुभ अवसर पर मात्र चावल के साथ दाल का उपयोग किया जाना, व्यक्त किए जाते इन तथ्यों की पूर्ति करता है कि एक तो चावल बनाना आसान दूसरी ओर अन्य प्रकार के भोजन से किफायती भी है।


चावल और दाल जिस बड़े बर्तन में पकाया जाता है उसे देग कहा जाता है एक देग में चावल तथा दुसरी देग में दाल को तैयार किया जाता है। देग का आकार-प्रकार वजन के हिसाब से होता है। जैसे दस किलो, बीस किलो अथवा चालीस किलो यानि एक साथ एक देग में वजन के अनुपात में भोजन तैयार किया जा सकता है। याद रखना होगा कि चन्देरी के निकटवर्ती क्षेत्र में इस प्रकार के खानपान का चलन नहीं देखा जाता है कि मात्र चावल से ही भर पेट आहार हो जावे।


एक अन्य प्रकार के खान-पान का उल्लेख करना भी विषय की मांग जान पड़ती है। स्थानीय मुस्लिम समाज में कभी-कभी रूमाली एवं माड़ा नामक रोटी का चलन सामूहिक भोजन में देखने को मिलता है। रूमाली रोटी छोटी पतली होती है जबकि माड़ा नामक रोटी बड़ा आकार ग्रहण किए हुए होती है। बताया जाता है कि रूमाली रोटी एवं माड़ा नामक रोटी का प्रचलन मुगलवंश की देन है। कारण रहा कम समय में अधिक मात्रा में भोजन तैयार करना जानकारों के अनुसार मुगल शासनकाल में एक रोटी करीब पाँच सौ ग्राम गेहूँ के आटे से तैयार की जाती थी। वर्तमान में अपनी सुविधानुसार रोटी का आकारप्रकार वजन घटा-बढ़ा है बावजूद इसके माड़ा रोटी को देश में सबसे बड़ी रोटी मान्य किया जाता है। माड़ा रोटी अन्य रोटी की तुलना में काफी किफायत के साथ स्वादिष्ट भी होती है।


16वीं सदी में चन्देरी एवं गागरौन राजा राजपूत मेदिनीराय के शासनकाल में व्यापार के सिलसिले में चन्देरी आए मारवाड़ी (राजस्थान) परिवारों के चन्देरी हस्तशिल्प व्यापार से जुड़ना साथ ही स्थाई निवास करने के कारण नगर में मारवाड़ी खानपान प्रवेश कर गया। आज भी मारवाड़ी परिवार नगर में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराते हुए अपनी प्राचीन खानपान संस्कृति को जीवित रखे हुए हैं। बात खानपान तक ही सीमित न होकर आगे बढ़ती है जिसके अंतर्गत मारवाड़ी त्यौहारों ने भी नगर में अपनी उपस्थिति ही दर्ज नहीं कराई वरन् आज तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए पूरी शान- शौकत के साथ नगर में मिलजुल कर मनाए जा रहे हैं। जैसे गोगापीर, गणगौर पर्व।


नगर में निवासरत मारवाड़ी परिवार समय-समय पर अथवा तीज त्यौहारों पर मारवाड़ी खानपान को आज भी अपनाए हए है। खानपान में मुख्य रूप से शामिल है बंजारा का खीचड़ा, आटे के फल, ठेटरा, घीमर इत्यादि।


चन्देरी मालवा और बुन्देलखण्ड की सीमा पर बसा होने के कारण यहाँ पर दोनों ही मिली-जुली संस्कृति का असर खानपान क्षेत्र में दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि दाल-बाफला मालवा का मुख्य प्रिय भोजन है लेकिन उक्त व्यंजन का असर चन्देरी में भी दिखाई देता है। उक्त भोजन स्थानीय जैन एवं हिन्दु वर्ग में समान रूप से लोकप्रिय व्यंजन के रूप में मान्यता प्राप्त है।


वहीं बुन्देलखण्डी एवं स्थानीय मिश्रित भोजन, व्यंजनों आदि में बरा (रोटीनुमा), मगौड़ी, कड़ी, चावल, दाल, रायता, चटनी, खीचला, मालपुआ, लौजी, चीला, गुलगुला, सकलपारा, चावल, महेरी, लप्सी, सन्नाटा, चावल के पापड़, ज्वार के पापड़, सतुआ, लचका, पपईया, पोहा, लुचई (पूड़ी), गकरिया, पना डुगरी, लटा के लडडू के अलावा मावा वाटी, गुजिया आदि का उपभोग-उपभोग सुविधानुसार स्थानीयजन के अलावा ग्रामीणजन करते हैं। क्षेत्रीय लोक संस्कृति अंतर्गत व्यंजनों पर व्यक्त किया गया एक दोहा स्थानीय स्तर पर बहुत मशहूर है, जिसे किसी पर तंज कसने अथवा व्यंगात्मक शैली का उपयोग करते हुए कहा जाता है कि


दोई दीन से गए पाड़े।


हलवा मिला न माड़े।


सारतः यह कहा जा सकता है कि पुरातन, ऐतिहासिक एवं पर्यटन नगर चन्देरी खानपान-भोजन से संबंधित क्षेत्र में एक मिली-जुली लोक संस्कृति का एक ऐसा आईना है। जिसके अतीत में सर्वभौम समाज की दास्ता बयान करती हुई संस्कृति के दर्शन होते है।