कैसे बरतन में करें भोजन?

हमारी भारतीय संस्कृति में अन्न को ब्रह्म का स्थान दिया गया है। इसलिए भोजन का बड़ा ही सम्मान किया जाता है। भोजन कब किया जाए, कैसा किया जाए, भोजन किन पात्रों में बनाया जाए एवं ग्रहण किया जाए- इन सभी के नियम हमारे आयुर्वेदिक ग्रंथों में निर्धारित किए गए हैं। प्राचीन समय में भोजन को बाजोट यानि लकड़ी के पाटिये पर रखकर ग्रहण किया जाता था। जैन धर्म में तो भोजन के हर एक दाने को इतना महत्त्व दिया जाता है कि इस धर्म से जुड़े लोग भोजन के उपरान्त थाली को धोकर पी लेते हैं। शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि भोजन की थाली में हाथ धोने से माँ लक्ष्मी नाराज़ हो जाती हैं और दरिद्रता दस्तक देती है।



आयुर्वेद अन्य चिकित्सापद्धतियों की तरह एक चिकित्सा-पद्धतिमात्र नहीं है अपितु सम्पूर्ण आयु का ज्ञान है। आयुर्वेद कहता है कि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति का मुख्य साधन शरीर है, अतः अपने आहार (पथ्य-अपथ्य) का विशेष रूप से ध्यान रखते हुए अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए। भोजन हमारे जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में से एक है। आज बीमारियों का प्रमुख कारण यह है कि कहीं-न-कहीं हम और आप प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। फलस्वरूप प्रकृति से मिलनेवाली स्वाभाविक ऊर्जा शरीर को नहीं मिल पाती। आयुर्वेद के अनुसार भोजन हाथ से ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि हाथ की पाँचों अंगुलियों का अपना महत्त्व होता है। अंगूठा-आकाश, तर्जनी-हवा, मध्यमा-आग, अनामिका-पानी, कनिष्ठा- पृथिवी को दर्शाती है। जब खाना हाथ से खाया जाता है, तब ये पञ्चतत्त्व पेट में पाचक तत्त्वों की क्रियाशीलता बढ़ाने में मदद करते हैं। इसी प्रकार भोजन बनाने और ग्रहण करने के लिए उचित पात्रों का उल्लेख आयुर्वेद में किया गया है जिनको अपनाकर हम काफी हद तक बीमारियों से बच सकते हैं।



कांसा- कांसा एक मिश्र धातु है जो तांबा और रांगा को निश्चित अनुपात में मिलाकर बनाया जाता है। किसी जमाने में चमकते हुए काँसे के बर्तन भारतीय रसोई की शान हुआ करते थे, पर आज की आधुनिक रसोई से कांसे के बर्तन गायब हो चुके हैं। कांसे के बर्तन विषाणुओं को मारने की क्षमता रखते हैं। इन बर्तनों में भोजन करना आरोग्यप्रद, असंक्रामक, रक्त व त्वचा-रोगों से बचाव करनेवाला माना गया है। कब्ज और अम्लपित्त की स्थिति में इनमें खाना फायदेमंद होता है। इस धातु के पात्रों में खाद्य-पदार्थों का सेवन करना रुचि, बुद्धि, मेधावर्धक और सौभाग्यप्रदाता कहा गया है। लेकिन कांसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए। खट्टे खाद्य-पदार्थ इस धातु से क्रिया करके विषैले हो जाते हैं। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल 3 प्रतिशत ही पोषक तत्त्व नष्ट होते हैं। रसशास्त्र के ग्रंथ आयुर्वेदप्रकाश में कांस्य का निर्माण, प्रकार, शोधन, गुण तथा औषधि बनाने के बारे में बताया गया है।


तांबा- पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पृथिवी पर शिवपुत्र कार्तिकेय के कारण ही तांबे की उत्पत्ति हुई थी। यह अति पवित्र धातु है। हिंदू-मान्यतानुसार इसमें रखा हुआ पानी गंगाजल की तरह ही पवित्र हो जाता है। आयुर्वेद में कहा गया है कि तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोगमुक्त बनता है। इससे रक्त शुद्ध होता है, त्वचा के समस्त विकार दूर करने की क्षमता तांबे में होती है, स्मरण-शक्ति अच्छी हो जाती है, तांबे के पात्र में करीब आठ घंटे रखा हुआ पानी पीने से शरीर के विषैले तत्त्व बाहर निकल जाते हैं। गठिया, एनिमिया, मोटापा और पाचन-क्रिया- सभी में इस पात्र में रखा हुआ पानी पीना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक माना गया है। पानी पीने के पात्र के सन्दर्भ में भावप्रकाश (5.128-129) में लिखा है-


जलपात्रं तु ताम्रस्य तदभावे मृदो हितम्।


पवित्रं शीतलं पात्रं रचितं स्फटिकेन यत्।


काचेन रचितं तद्वत्तथा वैदूर्यसम्भवम्॥


लेकिन तांबे के बरतन में दूध भूलकर भी नहीं पीना चाहिये।


सोना- आयुर्वेद के अनुसार सोना गरम धातु है, सोने के पात्र में भोजन बनाने और करने से शरीर के आंतरिक और बाहरी- दोनों ही हिस्से बलवान् बनते हैं। साथ ही यह आँखों की रोशनी भी बढ़ाता है।


चाँदी- आयुर्वेद के साथ-साथ अनेक वैज्ञानिक शोधों से यह स्पष्ट हो चुका है कि चांदी एक ठंढी प्रकृति की धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंढक पहुँचाती है। इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों की रोशनी बढ़ती है, इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष भी नियंत्रित रहता है।


पीतल- पीतल के बर्तनों में भोजन पकाने और करने से कृमि-रोग, कफ और पाचन- सम्बन्धी बीमारियों से बचा जा सकता है। पीतल के पात्र में खाना बनाने से 7 प्रतिशत पोषक तत्त्व नष्ट होते हैं। खट्टे खाद्य-पदार्थों के लिए पीतल के बर्तनों को काम में नहीं लेना चाहिए।


लोहा- लोहे के बर्तनों में बना भोजन शरीर में लौह तत्त्व की पूर्ति कर रक्ताल्पता दूर करता है जिससे शरीर की शक्ति बढ़ती है, शरीर की सूजन और पीलापन दूर होता है। आयुर्वेद का मत है कि लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए, क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि मन्द होती है। लोहे की कढ़ाई में गरम किया हुआ दूध पीना गुणकारी माना गया है।


एल्युमीनियम- अनेक शोधों से स्पष्ट हो चुका है कि एल्युमीनियम के बर्तनों में खाना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। इसमें बना हुआ खाना शरीर को हानि पहुँचाता है। यह शरीर में से लौह तत्त्व और कैल्शियम को सोख लेता है जिससे हड्डियाँ कमज़ोर होती हैं व मानसिक बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। किडनी, लिवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुँचती है। इसके अलावा तपेदिक, दमा, वातरोग और मधुमेह-जैसी गंभीर बीमारियाँ होती हैं। आयुर्वेद इस धातु के बर्तनों का उपयोग करने की अनुमति नहीं देता है।


स्टील- आजकल भारतीय रसोई में स्टेनलेस स्टील के बर्तनों को ही काम में लाया जाता है। ये बर्तन नुकसानदायक नहीं होते; क्योंकि ये न तो गरम से क्रिया करते हैं और न ही अम्ल से। इनमें खाना बनाने और खाने से न तो शरीर को कोई फायदा होता है और न ही कोई नुकसान पहुँचता है।


मिट्टी- प्राचीन समय में मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने व खाने का उल्लेख हर जगह मिलता है। इस बात की अब वैज्ञानिक पुष्टि हो चुकी है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, यदि भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना हो, तो उसे धीरे-धीरे ही पकाना चाहिए। इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से पूरे 100 प्रतिशत पोषक तत्त्व मिलते हैं। दूध और दूध से बने पदार्थों के लिए मिट्टी के बर्तन सबसे उपयुक्त होते हैं। यदि मिट्टी के बर्तनों में खाना खाया जाए, तो उसका स्वाद और खुशबू अलग ही होती है।