तिल की सौंधी महक देती - ब्यावर की तिलपट्टी

अरावली की सुन्दर एवं सुरम्य उपत्यकाओं में राजस्थान के कई शहर, नगर, कस्बे बसे हुए हैं जिनमें ब्यावर भी है। पूर्वकाल में ब्यावर का क्षेत्र मेरवाड़ा के नाम से जाना जाता था। 1838 ई. में कर्नल डिक्शन ने इस नगर की स्थापना की तथा इसका नक्शा अजमेर के नया बाजार की तरह डिजायन किया। ब्यावर की सडकें एक-दूसरे को समकोण पर काटती हैं। ब्यावर कस्बा बसने से पूर्व यह क्षेत्र सैनिक छावनी था। वर्तमान में भी भगत चौराहा का क्षेत्र छावनी रोड़ कहलाता है।



विश्व में ब्यावर की पहचान के मुख्यतः कारणों में ब्यावर का ऊन-कपास उद्योग, ब्यावर को ऐतिहासिक पहचान दिलाता 'बादशाह मेला' जिसकी खुमारी एवं रंगत ब्रिटिशकाल से वर्तमान तक बरकरार है। ब्यावर की तिलपट्टी (तिलपापड़ी) के स्वाद की तो बात ही निराली है।


ब्यावर का अर्थ होता है अच्छी किस्मत। यह नगर प्रमुख रेल एवं सड़क जंक्शन वाला शहर कृषि उत्पाद और कपड़ों का एक व्यावसायिक केन्द्र है। पूर्वकाल में यह राजस्थान का मेनचेस्टर कहलाता था। यहाँ की तिल-शक्कर से बनी तिलपट्टी की मिठास तो वर्तमान में विदेशों तक प्रसिद्ध है। इस उघोग से जुड़े श्री ओम प्रकाश शर्मा का परिवार एवं अन्य व्यावसायिक श्री कैलाश, श्री रामधन एण्ड सन्स (रामधन तिलपट्टी भण्डार, खत्री तिलपट्टी, आशाराम तिलपट्टी भण्डार.. आदि से प्राप्त जानकारी के अनुसार कहा जा सकता है कि इस व्यवसाय की शुरूआत ब्रिटिश काल में कुटीर उघोग के रूप में हुई थी लेकिन तिलपट्टी के लाजबाव स्वाद, तिल की सौंधी महक ने देश-विदेश के लोगों का दिल जीत लिया। ब्यावर की तिलपट्टी को विशिष्टता देने में प्रकृति भी वरदान प्रदत्त है। साथ ही कारीगरों की कुशलता, स्वच्छता उसके स्वाद को दुगना कर देते हैं।



तिलपट्टी बनाने की अपनी विशेष कला है। इसे बनाने के लिए प्रथम तिलों को हलके दाब के साथ छड़ (छड़ना-हल्के दाब के साथ भूसी पृथक्करण) कर पंखे की हवा में साफ किया जाता है, फिर इन्हें पानी में भीगो कर सफाई-धुलाई की जाती है जिससे तिल के रंग में निखार आता है। गीले साफ तिलों को बड़ी कढ़ाई में लकड़ी के मुगदर से हल्के हाथों से कूटकर, तिलों को मंदी (धीमी) आंच पर हल्का भूरा होने तक भूना जाता है, भूने तिलों की पुनः पंखे में सफाई की जाती है ताकि भूसी पृथक हो जाए, महीन मोतियों के समान चमकदार तिलों को देखकर कारीगरों की मेहनत एवं सौंधी महक सम्पूर्ण हलवाई गली को सुगन्ध से भर देती है। तिलपट्टी निर्माण का द्वितीय सोपान है चाशनी तैयार करना। दो तार की चाशनी में कुछ मात्रा नींबू के रस की मिश्रित की जाती है ताकि चाशनी की पारदर्शिता एवं चमक बरकरार रहे। चाशनी काँच के समान चमकती नजर आती है, भुने हुए तिलों को एक पृथक कढ़ाई में रखा जाता है। तैयार चाशनी को भुने हुए तिलों में मिश्रित किया जाता है, उसमें इलायची पाउडर, पिस्ता, बादाम, केसर को मिला कर मिश्रण के छोटे-छोटे लोए (पेडे) बनाये जाते हैं, चिकनी सतह पर इन पेड़ो को पापड़ के समान महीन (पतला) रोटी के तरह बेला जाता है। गरम-गरम शक्कर की चाशनी में भीगे तिलों को गोल बेलने में कारीगरों की स्फूर्ति-फुर्ती देखते ही बनती है। बेलने में पपड़ी का फैलाव जितना अधिक होगा पपड़ी उतनी ही पापड़ के समान पतली बनेगी तिलपट्टी के बेले जाने के पश्चात बारीक कागज की एक-एक तह के साथ तिलपट्टी की पेकिंग की जाती है। स्वाद व क्रेता की मांग के अनुसार शीत ऋतु में यह तैयार की जाती है जिसमें- (1) सादी तिलपट्टी (2) इलायची तिलपट्टी (3) केसर बादाम पिस्ता तिलपट्टी। वर्तमान में भी मांग के अनुसार हलवाई गली क्षेत्र, चांगगेट.. आदि क्षेत्रों में तिलपट्टी तैयार की जा रही है। जिसका निर्यात विदेशों तक होता है। तैयार पपड़ी को देख कर ऐसा लगता है मानों चाशनी के तार में एक-एक तिल को पिरो दिया गया है।


तिलपट्टी के गर्म लोए का स्वाद मुझे तिलपट्टी से भी अधिक स्वादिष्ट लगता है। चाशनी का लम्बा खिंचता तार गरम-गरम चाशनी में तिल का स्वाद, वाह! बचपन का समय भी लाजबाव। जायके में मीठी, तिल की सौंधी महक देती स्वादिष्ट, पौष्टिक एवं करारी तिलपट्टी उपभोक्ताओं को स्वाद लेने पर मजबूर कर देती है।


स्वाद एवं गुणवत्ता की दृष्टि से यह व्यंजन अनोखा है। इस मिठाई की मुख्य विशेषता यह है कि यह वर्षभर खराब नही होती, नमी से बचायें रखकर इसे वर्षभर काम में लिया जा सकता है। शीत ऋतु में तो सेहत और स्वाद का खजाना है ब्यावर की तिलपट्टी।