व्यंग्यकारों का बचपन

सुशील सिद्धार्थ साहित्य की दुनिया का जाना माना नाम है। वे अद्भुत व्यंग्यकार, सम्मोहक वक्ता, श्रेष्ठ संपादक व बेबाक आलोचक थे। सुशील सिद्धार्थ जी स्वभाव से जितने प्रसन्नचित्त, सरल व विनम्र थे, उतने ही अपने लेखन के प्रति गंभीर थे। असमय उन्होंने इस संसार से विदा ले ली पर वे अपनी अद्भुत रचनाओं के साथ हमेंशा साहित्य जगत में उपस्थित रहेंगे। सुशील सिद्धार्थ जी का जन्म 2 जुलाई 1958 को भीरा, सीतापुर में हुआ। पढ़ाई में हमेशा नंबर एक पर रहने वाले सुशील जी ने हिन्दी साहित्य में पीएच. डी. की। उनकी प्रसिद्धि पुस्तकें 'प्रीति न करियो कोय', 'मो सम कौन', 'नारद की चिंता', 'मालिश पुराण', 'राग लंतरानी', 'बागन बागन कहै चिरैया', 'एका' आदि हैं।


__सिद्धार्थ जी द्वारा परिकल्पित पुस्तक 'व्यंग्यकारों का बचपन' के पीछे उनकी सोच रही होगी जैसे कि खिलाड़ियों में जन्मजात प्रतिभा होती है क्या उसी तरह व्यंग्यकार भी जन्मजात होता है। इस विचार को लेकर वह आगे बढ़े, देश के ख्यातनाम व्यंग्यकारों को चुना और इस पुस्तक ने साकार रूप लिया बहुत ही दुख की बात है कि किताब के प्रकाशन से पहले ही वे इस संसार से विदा लेकर चले गये। अब यह किताब उनकी स्मृति के रूप में हमारे बीच में है। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से दो बार व्यंग्य व दो बार अवधी साहित्य पर नामित पुरस्कार प्राप्त किया। स्पंदन सम्मान, अवधी शिखर सममान, व्यंग्य लेखन हेतु पं. बृजमोहन अवस्थी साहित्य सम्मान आदि से सम्मानित हुए।


जीवन के अंतिम दिनों में सुशील सिद्धार्थ जी, नई दिल्ली किताबघर प्रकाशन में संपादक के पद पर कार्यरत थे। 17 मार्च 2018 को दिल्ली में ही उनका हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। सुशील सिद्धार्थ जी के अचानक चले जाने से साहित्य की जो क्षति हुई उसकी भारपाई कर पाना तो संभव नहीं है, पर उनकी स्मृतियों को अक्षुण्ण रखना हम सभी की जिममेदारी है। दिल्ली से प्रकाशित 'दी कोर' पत्रिका ने बड़ी ही सहृदयता के साथ सुशील सिद्धार्थ के सम्पादन व डॉ. नीरज सुधांशु जी के संरक्षण में वनिता पब्लिकेशन से प्रकाशित 'व्यंग्यकारों का बचपन' क्रमिक रूप से प्रकाशित करने का निर्णय किया है प्रथम कड़ी के रूप में इस परिकल्पना को साकार करने वाले सुशील सिद्धार्थ से बेहतर कोई और विकल्प्य नहीं हो सकता है। उनके बचपन को जानना न केवल खासा दिलचस्प है अपितु व्यंग्यकार बनने की यात्रा पर रोशनी भी डालता है आगे भी आपको 54 अन्य व्यंग्यकारों के बचपन को जानने का अवसर मिलेगा। इस बार प्रस्तुत है सुशील सिद्धार्थ का बचपननामा। -सम्पादक



अलबेला, मासूम सा


परपंचों से दूर।


रहता है बचपन सदा


धुर मस्ती में चूर।।


मेरा बचपन


"बचपन के दिन क्या अच्छे थे।


जब हम सारे निश्छल थे।।


सच सुनते थे सच कहते थे।


इतने ज्यादा पागल थे।"


सुशील 'शील'



(डॉ. सुशील सिद्धार्थ ने अपने जीवन काल का प्रारंभिक लेखन इसी उपनाम के साथ किया था।)


"लेखन ही नहीं जीवन के प्रेरणा स्रोत मेरे बाबा पं. प्यारेलाल (स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कथा वाचक) थे। भीरा एक छोटा सा गाँव है जो बाबा के जीवन काल तक साहित्य, संगीत एवं मल्लविद्या का केंद्र रहा। उनकी बातें सुन-सुनकर साहित्य और लोकजीवन की ओर मैं उन्मुख हुआ। घर का परिवेश बहुत सकारात्मक न होते हुए भी ठीक था। शिक्षा के साथ मैंने अनेक रचनाकारों को पढ़ा। धीरे-धीरे अभिव्यक्ति आकार प्राप्त करने लगी। पहली कविता मैंने सात वर्ष की आयु में लिखी थी।"



अपने गाँव तथा जनपद की स्मृतियों के विषय में उनका कहना था कि “मैं उन्हें केवल याद ही नहीं करता हूँ, अपितु उनके साथ हर क्षण जीता हूँ। मुझे इस बात का गर्व रहेगा कि मैंने नरोत्तम दास, मिश्र बन्धु, महाकवि पढ़ीस व कविवर चतुर्भुज शर्मा के जनपद में जन्म लिया। यही मेरी अयोध्या है। गाँव को याद करता जैसे अपने बाबा का चेहरा याद करना है। मेरे लिए दोनों में कोई अंतर नहीं है।"


डॉ. सिद्धार्थ की मानसिक आयु उनकी वास्तविक आयु से कई गुना आगे थी। उन्हीं के कथनानुसार, "मैंने जयशंकर प्रसाद तथा महादेवी वर्मा का संपूर्ण साहित्य कथा आठ में ही पढ़ लिया था।" यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उनकी स्मरण शक्ति आधुनिक समय की वह 'हार्ड डिस्क' थी जिसमें से अभी कुछ डिलीट नहीं होता था।


“बचपन में पेट तथा लिवर कमजोर होने के कारण बाबा और माता प्रायः मुझे ठिलिया पर लेकर इलाज कराने कमलापुर जाते थे। वहाँ डॉक्टर मुझे अरहर को दाल का पानी और रोटी खाने को बताता था। आज भी अरहर की दाल के पानी में भीगी रोटी मेरा प्रिय खाद्य है।"


बचपन में बाबा के संरक्षण में बिताए दिन जीवनभर पूँजी के रूप उनके मार्गदर्शक रहे। उन्हीं के शब्दों में, "संगीत, वाद्य, कुश्ती, ग़ज़ल, साहित्य का ज्ञान तथा सभी कलाओं के प्रति रूझान उनको ही देन है यूँ कहूँ कि वे ही मेरे प्रथम शिक्षक रहे। उस समय उनके साथ कृष्णायन तथा राधेश्याम रामायण का वाचन मेरे लिए किसी गौरव से कम न था। उनके संगीत प्रेम ने मुझे भी हारमोनियम, मंजीरा तथा ढोलक बजाने में निपुण बना दिया था। बचपन के साथी रामनरेश इस कार्य में मेरी पूरी सहायता करते थे क्योंकि वह भी बाबा की कथाओं में उनके साथ निरंतर ढोलक पर संगत करते थे।"


इसी क्रम में मेरे दूसरे मित्र 'शमशाद अली' तथा 'अरविंद' (बुआ का लड़का) रोज सवेरे मेरे साथ अखाड़े में कुश्ती लड़ते थे। क्योंकि मेरा कद छोटा था इस कारण बाबा एकांत में मुझे कुश्ती के कमर से नीचे लगने वाले दाँव तथा लाठी सिखाते थे। अरविंद मेरा छोटा भाई होने के साथ- साथ मेरे मित्र जैसा था। किन्तु दुर्भाग्य से उसका निधन हो गया और मैं मानसिक तौर पर बहुत अकेला हो गया।


मेरी प्रारंभिक शिक्षा पाँच वर्ष की आयु में मेरे भीरा गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित "श्री अयोध्या प्रसाद मिश्र' (मचलू महाराज) के "भारतीय किसान आदर्श माध्यमिक विद्यालय" कमहरिया से प्रारंभ हुई। इस यात्रा में भीरा के गंगा प्रसाद मेरे साथी रहे। दोपहर में नहर की पुलिया पर बैठ कर भिंडी-पराँठा या घुईयाँ-पूड़ी सिरके में पड़े आम के साथ खाना मुझे रुचिकर था। यह स्वाद आज भी मेरी जबान पर उसी तरह मौजूद है। माता सवेरे ही जाग कर अपने भईया के लिए ताजा खाना यह कहकर बाँधती थी कि 'हम अपने भईया का बासी खाना नाही खवाइत हन।' पिता हर इतवार शहर से मेरे लिए पार्ले बिस्कुट का पैकेट लाते थे।


गाँव की शिक्षा के बाद मेरा परिवार लखनऊ आ गया। शहर आकर कुछ क्या मिला किन्तु बचपन के समय का वह अनमोल अंश सदा के लिए पीछे छूट गया जिसकी कसक हमेशा मेरे मन को सालती रही।


लखनऊ में मेरे पिता ने अपने परिवार को लेकर मुंशीगंज में स्थित बच्चू महाराज के घर में रहना ठीक समझा। हम उनके घर में किराये से रहने लगे। मेरा दाखिला कथा आठ में जुबली कॉलेज में हो गया। गाँव का मैं काजल लगाने वाला सीधा-सादा लड़का शहर के बदले माहौल से सामंजस्य बनाने में जुट गया। जिसमें मेरी काफी ऊर्जा खर्च होती थी।


बचपन से ही मैं अंतर्मुखी और संकोची स्वभाव का रहा। अपने में ही सिमटा मेरा व्यक्तित्त्व अधिक समय लिखने-पढ़ने में ही व्यस्त रहता। संगीत सुनना तथा सिनेमा देखना मुझे बहुत प्रिय था। कण-कण में भगवान मेरी पहली फिल्म थी। बच्चू महाराज की बेटी पूर्णिमा (जो उस समय कक्षा छह में थी) मेरी अभिन्न मित्र थी। यहाँ गणेश मिश्र, प्रभात बाजपेई के साथ अच्छा समय बीता।


मेरे पिता मुझे विज्ञान पढ़ाना चाहते थे जिसमें मेरी कोई रुचि नहीं थी। लेकिन पिता के सामने 'मरता क्या न करता' मैंने विज्ञान ले लिया। नतीजा वही हुआ जो होना था। मैं हिन्दी को छोड़ कर सारे विषयों में फेल था।


शिक्षा का यही परिणाम शायद वह समय था जब सुशील अपनी परिस्थितियों या समय के बुने जाल में उलझ गए। यह उलझन किसी व्यक्ति की नहीं थी। यह उलझन थी विज्ञान और कला की (विज्ञान तथ्यपरक और कला भावनापरक)। मुझे ऐसा लगता है कि यहीं से सुशील का व्यक्तित्त्व दो भागों में बँट गया। एक सुशील (बचपन) और दूसरा सिद्धार्थ (लेखक, व्यंग्यकार)। धीरे-धीरे सिद्धार्थ सुशील पर हावी होने लगा और बचपन की स्मृतियों की वे ग्रामीण पगडंड़ियाँ समय के कठिन रास्ते में कहीं विलुप्त हो गई।