अभिलेखों ने दी है विश्व की सभ्यताओं को पहचान

पौरणिक दृष्टि से भारत दुनिया के सर्वाधिक प्राचीन देश के रूप में सर्वमान्य हैजब विश्व की प्राचीन सभ्यताएं पेड़ की छाल तथा सड़े-गले चिन्दों से कागज बनाकर लेखन में जुटी थी उस समय में भारत में वेदों की रचना सपन्न हो चुकी थी। जिन देशों के सबन्ध में जर्मन विद्वान मेक्समुलर ने लिखा है- “Rigveda is oldest book in the library of world.” वेद यद्यपि मुखोद्गातथे परन्तु इनके लेखन की प्राचीन परम्परा रही है। है। मेरे गुख्तर पद्मश्री डॉ. वि. श्री.वाकणकर (ऊज्जैन) के अनुसार-वैदिक साहित्य में सुइयों से लेखन की परा परंपरा का उल्लेख मिलता है।


विश्व इतिहास में पाषोण अभिलेख अभिलेख इतिहास के प्रमुख स्रोत माने जाते है। अभिलेखों ने ही प्राचीन सभ्यताओं को पहचान प्रदान की है। विश्व की चार प्राचीनतम सभ्यताओं में-मिस, नेसोपोटामिया, सिन्धु तथा चीन की संस्कृतियाँ सम्मिलित हैं।



इन में से सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता "मिस्र" की खोज का श्रेय 18 वीं शताब्दी में फ्रांस के सम्राट नेपोलियन (17991844) को दिया जाता है। 1798 में नेपोलियन के सैन्य अभियान दल ने नील नदी के मुहाने पर स्थित रोजेटा नामक स्थान पर एक पाषाण शिलालेख को प्राप्त कियायह शिलालेख दुनियाँ के सबसे प्राचीनतम सभ्यता के बारे में जानकारी प्रदान करने वाला प्रभाणित हुआ। इस अभिलेख के वाचन के साथ ही दुनियाँ में अभिलेखों के अध्ययन का श्रीगणेश हुआ। फ्रांसीसी विद्धवान शाम्पोलो ने 20 वर्ष के अथक समय में इस अभिलेख को पढ़कर मिस्र की प्राचीन सभ्यता के रहस्य को उद्घाटित कर दिया। जीन फकोइस चैपोलिन 17 SONAZiraasta 1832 ई. इस अभिलेख का प्रथम अध्येता था।


 मिस्रवासी 3000 ई. पू. याने आज से कोई 5020 वर्ष पूर्व से लेखनकला से परिचित थे। इनकी लिपि हेरोग्लिफिक कहलाता है जिसका अर्थ है 'पविचलिपि' । प्रारंभ में इस लिपि में 24 चिन्ह थे जिनकी संख्या आगे चलकर 500 हो गयी। इस लिपि की विशेषता यह है कि इसमें प्रत्येक चिन्ह एक व्यंजन होता है। इस लिपि में स्वर का अभाव है।


मिस्रवासी न केवल पाषाण अभिलेख उत्कीर्ण करन जानते थे अपितु वे लेखन कला से भी परिचित थे। लेखन हेतु वे जिस कागज का प्रयोग करते थे वह पेपाइरस वृक्ष की छाल से तैयार किया जाता था। पेपाइरस से ही आगे चलकर पेपर शब्द की व्युत्पत्ति हुई जिसे आज हम प्रयोग कर रहे हैंमिस्रवासी ने केवल पेपाइरस की छाल पर चित्रलिपि में लेखन करते अपितु जीवन के विविध पक्षों का चित्राकन भी करते थे मिस्री चित्रकारों ने मानव जीवन के विविध पक्षों का जैसा अंकन किया है वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। अभी तक जो सबसे लम्बा पेपाइरस का गट्टा मिला है वह 135 फीट लम्बा तथा 17 इंच चौड़ा है।



विश्व की दुसरी प्राचीन सभ्यता आधुनिक ईरान में विकसित हुई। आज का ईरान प्राचीन काल में “मेसोपोटामिया' के नाम से जाना जाता था। मेसोपोटामिया का शब्दिक अर्थ होता है “दो नदियों के मध्य का क्षेत्र"। ईरान में बहने वाली दो नदियाँ क्रमशः दजला और फरात है जो फारस की खाड़ी में गिरती है।


मिस्र की सभ्यता की खोज के कोई 25 वर्ष बाद ब्रिटिश पुरातत्त्वविद रालिन्सन ने ईरान के शहर बिहिस्तुन के समीप एक उसे पर्वत पर सन् 1850 ई. में एक शिलालेख की खोज की। इस शिलालेख का वाचन कर रालिन्सन ने विश्व को मेसोपोटामिया की सभ्यता का बहुत कुछ परिचय करा दिया। आगे चलकर इसी देश में मूसा नामक स्थान पर काले पाषाण का एक अभिलेख मिला जिस पर बाबुल सभ्यता की लिपि बेबोलियन में एक कानून सहिता खुदी थी। यह दुनियाँ की सबसे पहली कानून सहिता है जो विश्व में कानूनों का आधार बनी। बेबीलोन में कुल 11 राजवंशों ने शासन किया इनमें सम्राट हम्मुराबी 4144-4081 ई. पू. सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। इसी सम्राट ने आगे चलकर अपने राज्य के 282 कानूनों को पाषाण पर अंकित कर अमर कर दिया।



प्राचीनता की दृष्टि से चीनी सभ्यता तीसरे क्रम पर आती है, लेकिन इस का प्रारभिक इतिहास अभिलेखों पर आधारित न होकर पौराणिक अधिक है। इतिहास कथाओं के अनुसार चीनी सभ्यता का प्रारंभ शांग राजवंश से प्रारंभ होता है जो आज से लगभग 3766 वर्ष पूर्व विद्यमान था। चीनी लोग प्राचीन काल से ही लेखन कला से परिचित थे। मिस्त्री तथा समेरियन सभ्यता की तरह ये भी चित्रलिपि का प्रयोग करते थे पर इनके अभिलेख पाषाण की अपेक्षा हइडियाँ पर मिलते है। आगे चलकर ये हड्डियाँ तथा बांस की खिपच्चियों पर ऊँट के बालों की तूलिका से लेखन करने लगे। चीनी लिपि की दाएँ से बायें लिखी जाती है न बायें से दाहिने और समानान्तर लिखी जाती है अपितु यह ऊपर से नीचे की तरफ लिखी जाती है।


कृत्रिम कागज के निर्माण का श्रेय दुनिया में सर्वप्रथम चीन को ही दिया जाता है। मिस्रियों का कागज पेपाइरस प्राकृतिक था तो चीनियों ने कृत्रिम कागज का निर्माण कर सदियों पूर्व आधुनिक कागज उद्योग की आधारशिला रख दी। यह कागज पूणतः कृत्रिम था जो फटे-पुराने कपड़े मछली पकड़ने के पुराने जालों आदि को सड़ाकर बनाया जाता था। चन्द्रमा से धरती की कोई संरचना यदि देखी गयी तो वह है "चीन की दीवार"। इसी दीवार में आज से 2170 वर्ष पहले कोई भुलकद्ध कागज का गट्टा रखकर भूल गया था वही कागज आज विश्व के सबसे प्राचीन कागज के रूप में विद्यमान है।



पौरणिक दृष्टि से भारत दुनिया के सर्वाधिक प्राचीन देश के रूप में सर्वमान्य है। जब विश्व की प्राचीन सभ्यताएं पेड़ की छाल तथा सड़े-गले चिन्दों से कागज बनाकर लेखन में जुटी थी उस समय में भारत में वेदों की रचना सपन्न हो चुकी थी। जिन देशों के सबन्ध में जर्मन विद्वान मेक्समुलर ने लिखा है- “Rigveda is oldest book in the library of world.” वेद यद्यपि मुोद्गात थे परन्तु इनके लेखन की प्राचीन परम्परा रही है। है। मेरे गुत्तर पद्मश्री डॉ. वि. श्री. वाकणकर (ऊज्जैन) के अनुसार- वैदिक साहित्य में सुइयों से लेखन की परंपरा का उल्लेख मिलता है।


 सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीनतम नगरीय सभ्यता थी। आज जिस नगर को इतिहासकार मोहेंजोदडो, मोहनजोदडो के रूप में जानते हैं वह कभी सिन्धी भाषा में "मुहें-जो-डेरो' के नाम से जाना था। इसका शाब्दिक अर्थ होता थामुर्दो का टीला क्योंकि इस प्राचीन टीले से मकान बनाने के लिये मिट्टी खोदने के दौरान हड़ियाँ निकलती थीं। अब हमारी यह प्राचीन धरोहर पाकिस्तान में यूनेस्को द्वारा संरक्षित है।


सिन्धुघाटी सभ्यता में विश्व की सबसे प्राचीनतम लिपि प्रचलित थी? प्राचीनतम क्योंकि यह अभीतक पढ़ी नहीं जा सकी है। यह लिपि पकी मिट्टी की मुद्राओं पर मिली है। अब तक कोई 396 ऐसी मुद्राएँ मिल चुकी है जिन पर लिपिचिन्ह अंकित है। यह लिपि दाएँ से बायें लिखी जाती थी जबकि खरोष्ठी तथा अरेमाइक लिपियों बायें से दायें लिखी जाती थीं। सारी दुनियाँ के पुरातत्ववेत्ताओं ने प्रयास कर लिये पर वे अभी तक इसका निर्विवाद वाचन प्रस्तुत नहीं कर पाये।


भारत में विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं की तरह अभिलेख क्यों नहीं मिले? यह प्रश्न विचारणीय रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा जो कारण रहा है वह है भारतीय दर्शन का ईश्वरवादी होना। नाम तो बस भगवान का रहेगा बाकी सब तोनाशवान है। इस विचारधारा के कारण राम- कृष्ण से लेकर सम्राट अशोक के पूर्व तक के कोई शिलालेख भारत में नहीं मिले हैं।



मौर्य सम्राट अशोक (269-232 ई.पू.) ने सर्वप्रथम पारसी सम्राटों के देखा देखी अपने साम्राज्य में स्तंभ निर्माण की पाना मनिवास करने वाले निवासी प्रास्ता बात अलग है कि हजार-बातमी शुरूवात की। सम्राट ने अपने 7 स्तम्भ अभिलेख, लघु स्तम्भ अभिलेख 14 शिलालेख, तथा लघु शिलालेखों पर अपने घम्म संदेशों को ब्राह्मी लिपि में खुदवाने का जो नवाचार उस युग में किया वह अद्भुत था। विसेंट स्मिथ के शब्दों में-सम्राट अमर हो गया। आज भी हमारे देश में शत प्रतिशत जनता साक्षर नहीं हुई है। पाँचवीं-आठवीं के विद्यार्थी शुद्ध वाचन करना नहीं जानते। ऐसी स्थिति में कल्पना कीजिये उस सम्राट की जिसने अपने विशाल साम्राज्य में उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक धम्म उपदेशों के स्तम्भ सवा दो हजार बरस पहले गड़वा दिये। सम्राट कितना प्रजा हितेषी था, वह जानता था कि साम्राज्य के सीमान्त प्रान्तों में निवास करने वाले निवासी ब्राह्मी लिपि से अपरिचित हैं तो उसने उनके लिये खरोष्ठी तथा अरेमाइक लिपियों में भी अपने धम्मलेख खुदवाये। ब्राह्मी ने कोई 800 वर्षों तक देश पर राज्य किया।


बात अलग है कि हजार-बातमी ये बात अलग है कि हजार-बारहसौ वर्षों बाद लोग इसका ककहरा भी भूल गये। अज्ञानता इतनी बढ़ गयी कि जब फिरोजशाह तुगलक (1351-1388) जब तोपरा से सम्राट अशोक का स्तम्भ उठवाकर ले आया तो वह उस पर लिखे अभिलेख को पढ़वाना चाहता था। उसने दिल्ली के गुणीजनों को दरबार में आमंत्रित कर आवाहन कर आवाहन किया कि वे बतायें की इस पर क्या लिखा है? दरबारी ब्राह्मी पढ़ना नहीं जानते थे अतः उन्होंने सीधे-सीधे कह दिया-"हजूर इसके लिखने वाले देवता लोग थे ये लिखकर स्वर्ग चले गये।"


वर्तमान में यह परंपरा चल पड़ी है कि हम अक्सर विदेशी विद्वानों को कोसते रहते हैं। कड़ी आलोचना के दौरान उनके महत्वपूर्ण अवदानों को भी विस्मृत कर देते हैं। पर, दो हजार वर्षो तक भारत के अनपढ़े शिलालेखों को पढ़ने का श्रीगणेश करने का श्रेय सर जेम्स प्रिंसेप नामक ब्रिटिश अधिकारी को है जिसने ब्राह्मी लिपि को पढ़ने का ज्ञान हमें दिया। आज भी इस लिपि को पढ़ने वाले 120 विद्वान भी भारत में नहीं है। अभिलेख यदि इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत हैं तो उनके अध्ययन हेतु लिपिविद् देश की अनिवार्य आवश्यकता है।