बिजौलिया (भीलवाड़ा) का शिलालेख

प्राचीन युग की मानवीय प्रवृत्तियों का संश्लेषित-विश्लेषित वर्णन इतिहास है। इतिहास के आधारभूत एवं प्रामाणिक वृत्तांत लेखों से मिलता है। पूर्वकाल में अभिलेख पाषाण एवं धातु पर उत्कीर्ण किये जाते रहे हैं। पाषाण अभिलेखों को तैयार करने के लिए शिल्पी होते थे। अभिलेखों में तिथिक्रम के साथ में अक्षर एवं चिह्न, कूट का टंकन किया जाता था। इतिहासकारों ने प्राचीन काल के अभिलेखों का वर्गीकरण किया है-धार्मिक, नैतिक, दान सम्बन्धी, वंशावलीलेख, स्मारक.. आदि। शिलालेख-संग्रह पुरातत्व सामग्री का जैन इतिहास कार्य में विशेष भूमिका रही है। जैन-शिलालेख से धर्म-धारा के संघ, गण, आचार्य परम्परा, जिनमूर्ति, काल का विवरण आदि की पूर्ण तथ्यात्मक जानकारी में सहयोगी सिद्ध हुए।


देश के वृहत प्रांत राजस्थान में सभी धर्म-सम्प्रदाय के अभिलेख प्राप्त हुए है जो शासकों की धर्म सहिष्णुता का विराट साक्ष्य है। राजस्थान के कोटा-उदयपुर राजमार्ग पर जिला मुख्यालय भीलवाड़ा से 90 किलोमीटर एवं चित्तौड़ से लगभग 100 किमी. दूरी पर स्थित है बिजौलिया। बिजौलिया इतिहास में किसान आन्दोलन के कारण अपनी विशेष पहचान रखता है। बिजौलिया का प्राचीन नाम शिलालेखों के आधार पर 'विंध्यवल्ली' मिलता है। वर्तमान में तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान की तपोभूमि, कमठ द्वारा कैवल्य प्राप्ति स्थान बिजौलिया कस्बे के पूर्व में लगभग एक किमी. दूरी पर स्थित है।


यह शिलालेख 19 फुट 3 इंच लम्बा एवं 5 फुट 8 इंच चौड़ा है। इसमें 93 संस्कृत पद्य टंकित है। इतिहासकार डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इसका समय वि.सं.1226 फाल्गुन कृष्णा तृतीया है। अभिलेख के आधार पर जैन श्रेष्ठी लोलार्क ने अपने गुरु श्री जिन चन्द्राचार्य जिनायतन एवं तीर्थ की स्थापना कीइतिहासकारों के अनुसार इसमें सांभर और अजमेर के चौहान वंश की जानकारी प्राप्त होती है। इस वंशावली में जयराज, विग्रहराज, चन्द्रराज, गोपेन्द्रराज, दुर्लभराज, गोविन्दराज, चन्द्रराज, गुवक, वाक्पतिराज, विन्ध्यराज.. पृथ्वीराज, अजयराज, अर्णोराज आदि के नाम उल्लेखनीय है। इस अभिलेख से की कई स्थानों ; कस्बों, नगरोंद्ध का उल्लेख भी प्राप्त होता है। जाबालिपुर (जालौर), नडल (नाडोल), शाकम्भरी (सांभर), दिल्लिका (दिल्ली), श्रीमाल (भीनमाल), मंडलकर (मांडलगढ़), नागह्द (नागदा) आदि। इस अभिलेख की पंक्तियाः


बिजौलिया (राजस्थान)


संवत् १२२६ संस्कृत-नागरी 


१. सिद्धम् ।। ॐ नमो वीतरागाय। चिद्रूपं सहजोदितं निरवधिं ज्ञानै कनिष्ठापितनित्योन्मीलितमुल्लसत्पर कलं स्यात्कारविस्फारितं ।.... ||:"


।। नास्तं गतरूकुग्रहसग्रहो न नो तीव्रतेजा..


२ .... नैव सुदुष्टदेहोऽ पूर्वो रविस्तात् स.... वृषो वः । [स] .. ...... । नासाश्वा सेन येन प्रबलबलभृता पूरितः पांचजन्यः


४ नतया मुक्तात्मतामा (श्रि) ता श्रीमन्मुक्तिनितविनीस्तनतटे हारश्रियं विभ्रति


... .. ..। श्रीचाहमानक्षितिराजवंशरूपौर्वोप्यपूर्वो न जडावनद्धः। भिन्नो न चां


६. (गो न च ) रंध्र.... नो निरूफलरूसारयुतो नतो नो।। |.... गपर्वतपयोधरभारभग्ना शाकंभराजनि जनीव ततोपि विष्णोः ।। विप्रः श्रीवत्सगोत्रेभूद ह्यिच्छत्रपुरे पुरा । .. .. ..|.... जयराजविग्रहनृपौ श्रीचन्द्रगोपेन्द्रकौ.......


११. पि पार्श्वनाथायस्वयंभुवे। दत्त मोराझरीग्रामं भुक्ति.. .. हेतुना।।....


१२. पार्श्वनाथाय रेवातीरे स्वयंभुवे । ...... श्रीमालशैल ....


१३. जिनमंदिरं। .. .. व्याघ्ररकादौ जिनमंदिराणि। .. ..


१४. मानस्य श्रीनाराणकसंस्थितं। .. .. यत्कारितं स्वीयपुण्यस्कंधमियोज्वलं। .. ..


अभिलेख की अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार है:


खंडुवराग्रामवास्तव्यगौड सोनिगवासुदेवाभ्यां दत्तडोहलिका आतरी प्रतिगण के रायता? ग्रामीयमहं तमली वडियो पलिभ्यां दत्तक्षेत्र डोहलिका। वडोवाग्राम वास्तव्यपारिग्रही आल्हणेन दत्तक्षेत्र डोहलिका। लघुविक्रौली ग्रामसंग्रहिलपुत्र रा. शाहः महत्तम माहवाभ्यां दत्तक्षेत्र डोहलिका। 


अभिलेख का श्रीगणेश जिन स्तुति से किया गया है। अभिलेख के 87 श्लोक में माथुर संघ में गुण भद्र नामक दिगम्बर महामुनि हुए उन्होंने इस प्रशस्ति को बनवाया। मन्दिर के पूर्व में रेवती नदी, दक्षिण-पश्चिम में वाटिका का उल्लेख श्लोक संख्यांक 89 में मिलता है। इतिहासकारों के अनुसार उस समय दिए जाने वाले भूमि अनुदान को डोहली की उपमा दी जाती थी। प्रशस्ति के आधार पर उल्लेख मिलता है कि बिजौलिया के आस-पास का पठारी क्षेत्र उत्तमाद्री कहा जाता था जिसे वर्तमान में ऊपरमाल कहा जाता है। अभिलेख के २८ श्लोक में सांभर के चौहान राजाओं की वंशावली दी है। अभिलेख में उल्लेखित है कि इन राजाओं ने पार्श्वनाथ मन्दिर को दो गाँव दिए थे- पृथ्वीराज (द्वितीय) ने मोराझरी ग्राम एवं सोमेश्वर ने रेवणा गाँव दिया था। प्राग्वाटवंशीय वैश्रवण ने तडागपत्तन, व्याघ्ररक (बघेरा) आदि स्थानों में मन्दिर बनवाये।


जिनालय के समीप ही एक प्राचीन कुण्ड निर्मित है जिसे रेवती कुण्ड कहा जाता है। पाषाण पर उत्कीर्ण अभिलेखों के संरक्षण हेतु कक्ष का निर्माण करवा कर अभिलेख को शीशे (कांच) के बॉक्स लगा हुआ है। अभिलेख स्थल के समीप ही सहस्त्रों की संख्या में पगलिये (पद चिह्न) उत्कीर्ण है।


ऐतिहासिक, पुरातात्विक, धार्मिक दृष्टिकोण से यह शिलालेख अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बिजौलिया कस्बा प्राकृतिक सौंदर्याकरण से परिपूर्ण कस्बा है। यहाँ स्थित कई प्राचीन शिवालय भी पुरातात्विक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक पहलू से दर्शनीय है।