एक महाकाल शिव मन्दिर यहाँ भी है

मालवा (म.प्र.) के शाजापुर जिले में स्थित शुजालपुर उपखण्ड के निकट 32 किमी दूर सुन्दरसी नामक ग्राम में। सुन्दरसी का यह महाकाल शिव मन्दिर हूबहू उज्जैन के महाकाल मन्दिर और वहां स्थित शिवलिंग मूर्ति (ज्योर्तिलिंग) की लघु प्रतिकृति है। सुन्दरसी के इस महाकाल मन्दिर की लोक कथा भी उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य की अनुजा (बहिन) की शिव भक्ति से जुड़ी है


वैसे तो उज्जैन स्थित महाकालेश्वर ज्योर्तिलिंग की रोजाना भस्म आरती होती है। संभवतः यह विश्व का एक मात्र ऐसा शिव महालय है जहां शिव की महाकाल तांत्रिक रूप में ज्योर्तिलिंग मूर्ति का भस्म से शृंगार किया जाता है। परन्तु भारत में इसी विचित्र पूजन का एक प्रतिबिम्ब और भी है जहां इसी प्रकार अक्षरशः भस्म शृंगार पूजन होता है। जी, हां! और यह स्थान है मालवा (म.प्र.) के शाजापुर जिले में स्थित शुजालपुर उपखण्ड के निकट 32 किमी दूर सुन्दरसी नामक ग्राम में। सुन्दरसी का यह महाकाल शिव मन्दिर हूबहू उज्जैन के महाकाल मन्दिर और वहां स्थित शिवलिंग मूर्ति (ज्योर्तिलिंग) की लघु प्रतिकृति है। सुन्दरसी के इस महाकाल मन्दिर की लोक कथा भी उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य की अनुजा (बहिन) की शिव भक्ति से जुडी है। इस विचित्र कथा को मालवा में ही नहीं वरन् मध्यप्रदेश की लोक संस्कृति के साहित्य भी में मान्यता दी गई है जिससे इसकी प्राचीनता का अवबोध होता है। इस लोककथा के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य की छोटी बहिन का नाम 'सुन्द्रा' अथवा 'सुन्द्रादेवी' था। वह आरम्भ से ही महाकाल शिव की भक्त थी तथा प्रतिदिन महाकाल तथा उज्जैन के अन्य तीर्थों के दर्शनों के पश्चात् ही भोजन ग्रहण करती थी। समयानुसार जब उसका विवाह मालवा के एक स्थान भगवतगढ़ के राजकुमार भगवंत सिंह से होना निश्चित हुआ तब सुन्द्रादेवी ने अपने दर्शनों की शर्त रखी कि मैं उसी गांव में विवाह करूंगी जहां महाकालेश्वर का मन्दिर होगा। उसकी इसी शर्त को पूरा करने के लिए सम्राट विक्रमादित्य ने अपनी बहिन के लिये भगवतगढ़ ग्राम में उज्जैन के महाकाल मन्दिर की प्रतिकृति तथा प्रतिबिम्ब के रूप में एक भव्य मन्दिर हूबहू स्वरूप में बनवाया तथा यहां एक महाकाल शिवलिंग की स्थापना भी की थी। इतना ही नहीं सम्राट ने अपनी बहिन की मनोभावना के अनुसार भगवतगढ़ में हरसिद्धि देवी, भैरव आदि के भी हूबहू मन्दिरों के साथ अभिषेक जल का प्राचीन कुण्ड तथा एक सुरंग का भी निर्माण करवाया था तथा इन सभी मन्दिरों के देवी देवों की पूजा का भी वहीं विधान रखा जो उज्जैन के मन्दिरों में था। इस प्रकार भगवतगढ़ में इन मन्दिरों के निर्माण, पूजन के साथ जब सुन्द्रादेवी का विवाह हुआ और वे भगवतगढ़ आई तभी से इस स्थान का नाम उनके नाम पर 'सुन्दरसी' हो गया जो आज तक प्रत्यक्ष प्रचलन में है तथा मालवा के साहित्यकार एवं लोक संस्कृतिविद् भी इसी कथा को मान्यता देते हैं। इस कथा गाथा से यह प्रतीत होता है कि सुन्द्रादेवी की मनोभावना सुन्दरसी के महाकाल मन्दिर में साक्षात साकार हुई थी। कथा के अनुसार तभी से यहां की पूजा उज्जैन के महाकाल की पूजा के विधान पर होना आरम्भ हुई थी। इस कथा के आधार पर फिर यह माना जाना संभवतः सत्य के निकट हो जाता है कि पूरे देश में उज्जैन के बाद यदि कहीं इस मन्दिर का हूबहू प्रतिबिम्ब है तो वह स्थल केवल सुन्दरसी का महाकाल मन्दिर है।



ऐसा कहा जाता है कि प्राचीनकाल में प्रतिवर्ष श्रावण माह में यहां महाकाल की भस्म आरती भी होती थी और यह परम्परा बदस्तूर सैकड़ों वर्षों तक निरन्तर प्रचलित भी रही। मन्दिर के पुराने पुजारी बताते है कि जो पुण्य उज्जैन के महाकाल दर्शन से प्राप्त होता है वहीं पुण्य सुन्दरसी के महाकाल शिवलिंग के दर्शन से भी मिलता है। पुजारी बताते है कि पूर्व में सुन्दरसी के महाकाल शिवलिंग की भस्म आरती शव की भस्म आरती शव की भस्म से ही होती थी परन्तु अब यह गाय के गोबर से बने कण्डे की भस्म से होती है। ऐसी भी मान्यता है कि सुन्दरसी के इस मन्दिर के निकट जो प्राचीन सुरंग है उसके माध्यम से यहां के महाकाल शिवलिंग पर जलाभिषेक हेतु प्रतिदिन उज्जैन की पवित्र शिप्रा नदी से जल आता था और उसी से अभिषेक किया जाता था। यह स्थल आज भी एक कुण्ड के रूप में है। हालांकि वर्तमान में सुरंग के भग्न होने से अब इस मन्दिर के निकट प्रवाहित कालीसिन्ध नदी के जल से ही यहां के महाकाल शिव का अभिषेक होता है। इस मन्दिर के निकट क्षेत्र में ही पाँच अन्य मन्दिर हैं जिनमें देवी हरसिद्धि, काल भैरव नागचन्द्रेश्वर, गौरला भैरव के मन्दिर भी है। इनमें हरसिद्धि देवी का पूजन भी उज्जैन के हरसिद्धि देवी मन्दिर की मूर्ति के विधानानुसार ही होता है। आज भी सुन्दरसी के महाकाल मन्दिर में श्रावण व शिवरात्रि महोत्सव उज्जैन के महाकाल मन्दिर के विधान के ही अनुरूप होते है तथा यहां विशाल मेले एवं महाकाल नगर भ्रमण के कार्यक्रम आयोजित होते है। वर्तमान में सुन्दरसी मन्दिर क्षेत्र के दो हेक्टेयर क्षेत्र में प्राचीन मन्दिरों के कलात्मक अवशेष तथा मूर्तियां व शिलालेख दिखायी देते है। इस प्रमाण से यह स्पष्ट होता है कि सुन्दरसी में प्राचीनकाल में एक विशाल नगरीय व्यवस्था थी। यहां के मन्दिर की स्थापत्यकला तथा शिलालेखों से यह प्रमाणित होता है कि यह मालवा के परमारवंशीय नरेशों के काल का एक प्रगतिशील नगर था। बाद में मुगल आक्रमणों से यहां के स्थापत्य को क्षति पहुंची और पुनः पश्चात के कालों में यहां के मन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ। शुजालपुर के शिक्षाविद् प्रो. एम.आर. नालमे का कहना है कि मालवा के सिन्धियां और होल्कर नरेशों के काल में सुन्दरसी एक ऐसा महत्वपूर्ण प्रशासनिक स्थल था जहां ग्वालियर, धार, देवास और इन्दौर राज्यों की सीमायें आकर मिलती थी तथा उक्त चारों राज्यों का न्यायिक प्रधान मजिस्टेज्ट यहां से न्याय करता था।


सुन्दरसी के महाकाल मन्दिर तक पहुंचने के लिए उज्जैन रेलवे जंक्शन से भोपाल जाने वाली रेल द्वारा आसानी से मध्य में स्थित शुजालपुर स्टेशन पर उतरकर वहां से निजी वाहन या किराये की टेक्सी के द्वारा आसानी से पहुंचा जा सकता है। आज भले ही मालवा के लोक संस्कृतिविद् तथा मालवावासी सुन्दरसी के महाकाल मन्दिर की महत्ता, कथा को जानते है परन्तु अभी उज्जैन के महाकाल मन्दिर की भांति सुन्दरसी के इस महाकाल मन्दिर की लोकख्याति का प्रसार होना भी आवश्यक है। इस दिशा में मध्यप्रदेश के देवस्थान तथा पर्यटन विभाग द्वारा इस मन्दिर में एक साथ पहल कर इसे देशभर के लोक पर्यटन स्थलों से जोड़ा जा सकता है। सुन्दरसी का क्षेत्र प्राकृतिक परिवेश और धर्म पर्यटन का आज भी इतना सुन्दर और मनोरम दृश्य उत्पन्न करता है कि जो भी भक्त और पर्यटक एक बार यहां आता है वह इस स्थल की प्राकृतिक आभा एवं यहां के देवालय देखकर मुग्ध हो उठता है।