हाड़ौती का एक मात्र नागवंशी शिलालेख

प्रस्तुत लेख का उद्देश्य यह है कि अभी तक मालवा के इतिहास जगत में प्राचीन नागवंश की विपुलपुरा सामग्री मिली है जिनके विभिन्न प्राचीन पक्षों पर अनेक शोध कार्य हुए है, परन्तु यह भी एक आश्चर्य है कि प्राचीन मालवा क्षेत्र के अधिकार में रहे उसके पड़ौसी वर्तमान हाड़ौती प्रदेश में अभी तक नागवंश के अवशेष उत्खनन में नहीं मिले। यद्यपि हाड़ौती के प्राचीन सिक्को, मूर्तियों तथा मंदिर स्थापत्य पर मालवी संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है।


प्रस्तुत विश्लेषणात्मक लेख हाड़ौती में अब तक के उत्खनन में मिले एक मात्र नागवंशीय शिलालेख के पुरा प्रसंग तथा विवेचन पर केन्द्रित है जिसकी खोज मात्र प्राचीन अंग्रेजी रिपोर्टस में बन्द है तथा जिसके बारे में वर्तमान शोधार्थियों को पता ही नहीं है और ना ही किसी स्थानीय पुराविद् ने इस पर कोई विवेचनात्मक गम्भीर कार्य किया है। लेख का उद्देश्य इस पक्ष की मूल महत्ता को शोधार्थियों में प्रसारित कर इसमें वर्णित नागवंश व बौद्ध धर्म के वैशिष्ठय को प्रस्तुत करना है। इस लेख में सर्वाधिक विचारणीय बात यह है कि इसमें नागवंशीय जिन बौद्ध धर्मावलम्बि शासकों का वर्णन जिस 9वीं सदी का है वस्तुत उसी सदी में इस क्षेत्र में कोलवी की विशाल बौद्ध गुफाओं का निर्माण भी हुआ था परन्तु इस क्षेत्र के गुफा निमार्ता बौद्ध भिक्षुओं व प्रस्तुत शिलालेख में वर्णित बौद्धधर्म अनुयायी शासकों के मध्य क्या सम्बन्ध रहे होगें? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। यद्यपि यह पक्ष अब व्यष्ठि भावी शोध की संभावना के द्वार अवश्य खोलता है क्योंकि कोलवी की बौद्ध गुफाओं की ख्याति उस समय से आज तक राजस्थान के अब तक मिले बौद्ध साक्ष्यों में सबसे विशालतम बौद्ध गुफा समूह के रूप में ज्ञात ख्यात एवं मान्य रही है। ये गुफायें अब भी अस्तिव में है।


हाड़ौती प्रदेश के बारां जिलान्तर्गत स्थित अटरू कस्बे में मात्र 18 किमी दूर दक्षिण पश्चिम में शेरगढ़ नामक प्राचीन नगर है। प्राचीन काल में इसका नाम 'कोशवर्धन' था परन्तु मध्ययुग में शेरशाह के इस पर आधिपत्य होने से इसका नाम शेरगढ़ हो गया जो वर्तमान तक प्रचलन में है। प्राचीन समय में यह स्थल एक समृद्धशाली नगर एवं प्रमुख सैनिक केन्द्र था। वहां उस युग के हिन्दू, जैन तथा बौद्धधर्म के पुरावशेष व लेख भी मिले है।


शेरगढ़ से प्राप्त अबतक के पाषाण लेखों में सर्वाति प्राचीन शिलालेख नागवंशीय राजा (सामन्त) देवदत्त का संवत 847 (सन् 790 ई.) का है। यह लेख शेरगढ़ दुर्ग के बरखेड़ी द्वार के अन्दर की प्राचीर में दाहिनी ओर की सीढ़ियों के नीचे के आलिये में लगा है। इसमें कुल 20 श्लोक अत्यन्त सुन्दर एवं शुद्ध संस्कृत भाषा में है। इसे मूलतः प्रशस्ती लेख माना जा सकता है। इस लेख का सार यह है कि यहां के नागवंशीय शासक देवदत्त द्वारा कोशवर्धन पर्वत के पूर्व में एक बौद्ध मंदिर एवं विहार निर्मित कराने का विवरण है। इस लेख में देवदत्त को सामन्त लिखा है और उसकी वंशावली भी अंकित की गयी है।


हाड़ौती क्षेत्र में प्राप्त होने वाले इस प्राचीन और प्रथम नागवंशीय शिलालेख का मूल अनुवाद, व्याख्या तथा इसका ऐतिहासिक वैशिष्ठय एवं विश्लेषण इस प्रकार है -


मूल पाठ


ओं नमों रत्नत्रयाय।। जयन्ति वादाः सुगतस्य निर्मलाः समस्त सन्देह निरासभासुराः।


कुतर्कसम्पातनिपातहेतवो युगान्तवाता इव विश्वसन्तेः।।1


यो रूपवानपि विभर्ति सदैव रूपमेकोष्यनेक इव भातिचयो निकामं।


आरादगात्परधियः प्रतिमर्त्य वेद्यो यो निजितारि रजितश्च जिनः सवोव्यात्।।2


भिनत्ति यो नुणाम्मोहं तमो वेश्मनि दीपवत्।


सौव्याद्वः सौगतो धर्मो भक्तमुक्तिफल प्रदः।।3


आर्यसंघस्य विमलाः शरच्छसि (शी) जितश्रियः।


जयन्ति जयिनः पादाः सुरासुरशिरोच्चिताः।4


आसीदम्भोधिधीरः शंशिधवलयशा विन्दुनागाभिधान


स्तसूनुः पहनागोभवदसमगुणैर्भूषिताशेषवंशः।


तस्या प्यानन्दकारी करनिकर इवानुष्णरश्मेस्तनूजो


ज्ञातःसामन्तचक्रप्रकटतरगुणः सर्व्ववागो जितारिः।।5


तस्याभूद्दयिता विशुद्धयशसः श्रीरित्युरः शायिनी


कृष्णस्येव महोदया च शशिनो ज्योत्स्नेव विश्वम्भरा।


गौरीवाद्विदृशोसमा शमवतः प्रज्ञेव वातायिनी


गम्भीरा यदि वा महोर्मिवलया वेलेव वेलाभृतः।।6


ताभ्यामभूदगुणाम्भोधिव्वर्वशीकृतमनोमलः।


देवदत्त इति ख्यातः सामन्तः कृतिनां कृती।।7


येषान्नतिनिगुरौ गुरूता गुणेषु संगोर्थिभिः सत्तदाननिबद्धगद्धैः।


भीतिः प्रकाममघतो जगदेकशत्रोस्तेषामयं कृतविशेषगुणोन्ववाये।।8


येषां भूतिरियं परेति न परै रालोक्यतेऽार्थिभि


येर्षाम्मुद्विभवः परः परमुदः स्वप्नेपि नाभूत्तनौ।


येषामात्महितोदयाय दयितं नासीद्गुणासादनं


तेषामेव वशी शशाधवले (लो) जातःकलाम्भेनिधौ।।9


सम्पादितजनानन्दः समासादितसन्ततिः।


कल्पशाखीव जगतामेष भूदो गुणाकरः।।10


विश्वाश्वासविधौ तृणीकृतसितज्योत्स्नोदयो देहिना


मन्तःशुद्धिविचारणे सुरगुरोरप्याहिताल्पोदयः


गाम्भीर्याकलने निकाम कलितः क्षीरोदसारस्त्वयं


यत्तन्नूनमहो गुणा गुणितनुव्यासंगिनः संगताः।11


तावन्मानधना यशस्ततिभृतस्तावच्च तावदुधा


स्तावत्तायिसुतानुकारकरणास्तावत्कृपाम्भोधयः।


तावन्नयस्त परोपकार तनवस्तावत्कृतज्ञाः


परे यावन्नास्य गुणेक्षणे क्षणमपि प्राप्तावधानो जनः।।12


यस्योतीक्ष्य गुणानशेषगुणिनामद्याप्यव (ज्ञा) त्मनि


निव्वार्णा खिल मान सन्ततिपतच्चेतो विकासा समा।


भानौ ध्वस्त समस्त नेशतमसि स्वैरं करालीकृति


प्रातर्येन कलावलोपि विगलच्छायःशशाङ्को न किम्।।13


यस्यान्वयेगुणजन्म नदृष्टपूर्वमासादिता न च गुणौर्गणन व्यवस्था।


याता मुहुर्तमपि नो कलिदोषलेशास्सोयन्निररस्तसमतो भुवि कोप्यपूर्वः।।14


यस्य दानमतिरक्षतदाना भाषितान्यफलवन्ति न सन्ति।


प्राणदानविहितावधि सख्यं तस्य को गुणानिधेरिहतुल्य।।15


नाना सन्ति दिनानि सन्ति विविधाश्चन्द्राँशुशीता निशास्सन्त्यन्याः


शतशोबला जितजगन्नारीसमस्तश्रियः।


तन्नान्दि जगत्त्रयेपि सुदिनं सावा निशा सावला


यज्जन्मन्यगमन्निमित्त पदवीमस्या परैर्दु (ग) माम्।।16


कोशवर्द्धनगिरेरनुपूर्व सोयमुन्मिषितधीः सुगतस्य।


व्यस्तमारनिकरैकगरिम्णो मंदिरं स्म विदधाति यथार्थम्।।17


सुखान्यस्वन्तानि प्रकृतिचपलं (जी) वितमिदं प्रियाः


प्राणप्रख्यास्तडिदुदयकल्पाश्च विभवाः (1)


प्रियोदश्चिालं क्षणसुखकृतौ दुःखबहुला


विहारस्तेनायं भवविभवभीतेन रचितः।।18


सान्द्रध्वानशर (द्व)-लाक निवहत्यक्तार्क बिम्बोज्जवलं


संसाराङ्कर संगभंग चतुरं यत्पुण्यमात्तम्मया।


जैनावासविधेरतोयमखिलो लोकत्रयानन्दनीं


तेनारं सुगतश्रियं जितजगद्दो (षां) जनः प्राप्नुयात्।।19


प्रशस्तिमेनामकरोज्जातः शाक्यकुलोदधौ।


जज्जकः कियदर्थांश निवेश विहितस्थितिम्।।20


सम्वत् शराङ्क (संवत्सराङ्क) 7 माघ सुदी 6।


उत्कीर्णा चणकेन (II)



भावानुवाद


ओम्। त्रिरत्न (भगवान बुद्ध, धर्मनियम और बौद्ध-संघ) को नमस्कार!


1. सुगत (भगवान बुद्ध) द्वारा दिये गये उपदेश, जिनके विशेष गुणों से समस्त सन्देहों का निराकरण होता है। यह सन्देह कुविचार के कारण उत्पन्न होते है। इनका विनाश इसी प्रकार होता है, जिस प्रकार प्रलयंकारी हवाएँ समस्त संसार को नष्टकर देती है।


2. जिन (भगवान)! तुम्हारी सहायता करें। वह भगवान जो अविजित है और अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। यद्यपि यह निराकार है, परन्तु फिर भी अनेकों रूप धारण करके अपनी प्रभुता का प्रकाश फैलाता है और वह समस्त मानव समाज द्वारा स्मरण करने योग्य है।


3. भगवान बुद्ध के बनाये हुए धर्म-नियम तुम्हारी रक्षा करें। जिस प्रकार दीपक से अंधकार का विनाश होता है, उसी प्रकार धर्म-नियमों से मनुष्यों के भ्रमों का विनाश होकर उनमें धर्म के प्रति विश्वास जागृत होता है।


4. वह चन्द्रमा जिसकी बसन्त ऋतु की निर्मल चाँदनी को देवता और असुर दोनों नमस्कार करके अपनी श्रद्धा प्रकट करते है। उसी प्रकार धर्म-संघ पवित्र है और सदैव उसकी जय होती है।


5. बिन्दुनाग नामक एक व्यक्ति था, जिसकी विद्वत्ता समुद्र की गहराई के समान गहन थी और जिसकी प्रसिद्धि चन्द्रमा के समान उज्जवल थी। उसकेपुत्र का नाम पद्मनाग था। उसके अद्वितीय एवं अनूठे गुणों से ही नागवंश की ख्याति पर्याप्त रूप से सुदूर दिग्दिगन्तों में व्याप्त हुई। उसके एक वीर पुत्र सर्वनाग उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार चन्द्रमा शीतल किरणों से समस्त सृष्टि आनदित होती है, उसी प्रकार उसके सद्गुणों से उसने समस्त संसार को सुख प्रदान किया और त्तकालीन समय के सभी शासकों के बीच गुणों के कारण पर्याप्त लोकप्रिय भी हुआ।


6. इस प्रसिद्ध व्यक्ति के श्री नामक पत्नी थी। यह महिला कृष्ण के वक्षस्थल में निवास करने वाली लक्ष्मी के सदृश चन्द्रमा की शुभदायक चंद्रिका के सदृश, त्रिनेत्रधारी भगवान शिव की पत्नी महादेवी गौरी के सदृश अद्वितीय प्रखर मेघा-सम्पन्ना एवं विदुषी महिला थी। उसका व्यक्तिव विशाल समुद्र तट के समकक्ष था।


7. इस युगल से एक मनमोहक राजकुमार उत्पन्न हुआ। जो देवदत्त नाम से संसार में विख्यात हुआ। इस बालक में भी गुण समुद्र के समान थे तथा अपनी प्रतिभा एवं अपनी प्रत्युत्पन्नमति के कारण वह पर्याप्त रूप से विख्यात भी हुआ।


8. उसमें इस युग के विशेष गुण मौजूद थे तथा वह ऐसे वंश से सम्बन्धित था जिसने सदैव अपने गुरू का सम्मान ईश्वर के समान किया, बल्कि अधिक ही, कम नहीं।


9. जिस प्रकार चन्द्रमा का उदय समुद्र से होता है उसी प्रकार यह संत-स्वभाव वाला युवक अथवा राजकुमार अन्यों की अपेक्षा पराये धन की कामना नहीं करता था। साथ ही इतना चारित्रिक था कि उसने स्वप्न में भी पराई स्त्री की कल्पना नहीं की और न ही भोग की इच्छा ही।


10. इस प्रकार इस सर्वगुण सम्पन्न वाले व्यक्ति ने अपने शासन काल की अवधि में सदैव ही मानव समाज को राहत दिलाने का प्रयास किया।


11. समस्त मानव समाज के सद्गुणों से वह परिपूर्ण था। मानव-समाज के सुख की अभिवृद्धि करने हेतु उसने चन्द्रमा की श्वेत शुभ्र किरणों की उपेक्षा की और मानव-समाज से ज्ञान की अभिवृद्धि करने हेतु उसने देवताओं के गुरू बृहस्पति को भी महत्ता नहीं दी। उसकी प्रगाढ़ विद्वत्ता क्षीर-सागर की गहराई से भी अधिक थी।


12. यद्यपि अन्य व्यक्तियों को अपनी प्रसिद्धि और वीरता पर गर्व होता है और वे भगवान बुद्ध के अनुयायियों के, जो श्रद्धा के सागर होते है और जो दूसरों के परोपकार हेतु स्वयं त्याग करते है और मनुष्यों के अवज्ञाकारी होने पर भी भगवान के कृतज्ञ होते है।


13. यदि मानव समाज उनके गुणों पर दृष्टिपात करता है, तो सर्व गुण सम्पन्न व्यक्ति भी इस अवसर पर अपनी अवज्ञा पर भी ध्यान नहीं देता है, जिससे उनका समस्त गर्व चूर-चूर हो जाता है और उनका सुखी चित्त उनका त्याग कर देता है। क्या पूर्ण चन्द्रमा प्रातःकाल होने पर अपनी शुभ्रचांदनी से वंचित नहीं हो जाता है, जिस समय सूर्यदेव समस्त अंधकार का नाश कर अपनी किरणों का अपनी इच्छानुसार वितरण करते है।


14. अपनी इच्छानुसार वितरण करते है। 14. इस मनुष्य की संसार में कोई अन्य उपमा योग्य वस्तु नहीं है। इसमें कोई अवगुण विद्यमान नहीं है उसका वंश सर्वगुण सम्पन्न है, जिसमें कलियुब का क्षीण और क्षीण पाप भी कुछ क्षणों के लिए प्रवेश नहीं पा सकता है।


15. उसकी दयालुता और सद्वाणी कभी व्यर्थ नही गई। उसके परस्पर बंधुत्व तथा भ्रात की कोई सीमा नहीं है और उस जैसा त्यागी और गुणी व्यक्ति इस संसार में काई अन्य नहीं है।


16. अनेक प्रकार के दिवसों और चन्द्र किरणों से शीतल अनेक रात्रियों और अनेकों ऐसी स्त्रियाँ जिनकी सुन्दरता समस्त संसार की स्त्रियों की सुन्दरता से भी अधिक है, परन्तु यह भाग्यशाली दिन और रात्रि या स्त्रियाँ लो तीनों लोको में पुनः प्राप्त नहीं हो सकते है, ऐसे शुभ समय में उसका जन्म हुआ है।


17. इस बुद्धिमान व्यक्ति ने कोशवर्द्धन पर्वत की पूर्व दिशा में भगवान बुद्ध के एक भव्य एवं शानदार मंदिर का निर्माण करवाया। ज्ञातव्य है कि यह वही भगवान बुद्ध है, जिन्होनें कामदेव के मद का मर्दन किया था।


18. इस जीवन में सुख और दुःख क्षणिक वस्तु है। इस जीवन में मित्रगण श्वास की भाँति होते है, तो धन विद्युत प्रकाश की भाँति होता है। साथ ही वैभव से भी क्षणिक सुख की प्राप्ति होती है। परन्तु अन्त में यह सब कष्टदायी होते हैनश्वर संसार में इस प्रकार के वैभव की पीड़ा से मुक्ति पाने हेतु उसने इस शुभ कर्म के रूप में इस ऐतिहासिक मंदिर का निर्माण करवाया।


19. इस मंदिर का निर्माण आस्थावादी अथवा भक्तजनों की कल्याण कामना हेतु करवाया गया था। वह भगवान जिसका तेज एक सूर्य बिम्ब के समान है, जिसका अवरोध बसन्त द्धतु के बादलों से उत्पन्न होने वाली गर्जना से, जो नष्टकारी प्रभाव रखती है और दुखों का कारण है। सम्पूर्ण मानव सृष्टि भगवान बुद्ध की यशो-गाथाओं को वर्णन करती है, ताकि उन्हें तीनों लोको में सुखद शांति प्राप्त हो सकें और दैहिक, दैविक तथा भौतिक (त्रि-तापों) यातनाओं से राहत मिल सकें।


20. शाक्य-कुल रूपी समुद्र से उत्पन्न 'ज्जक' ने इस प्रशस्ति की रचना की और इसके अर्थो का विश्लेषण किया। इस लेख को ह्यचणक नामक व्यक्ति ने शासन-काल के सातवें वर्ष की माघ शुक्ला षष्टमी के दिन शिला पर उत्कीर्ण किया।



स्पष्टिकरण एवं  शिलालेखीय वशिष्ठयः


प्रस्तुत लेख की तिथि शराङ्क 7 माघ सुदी 6 अंकित है। जे.एम. फ्लीट ने इसे 879 संवत् निर्धारित किया, जबकि पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने इसे 847 संवत् तथा 790 ईस्वी सन् के रूप में मान्यता दी। अधिकांश इतिहासकार पं. ओझा के मत से ही सहमत है। सम्पूर्ण शिलालेख का गम्भीरता पूर्वक अध्यययन करने से ज्ञात होता है कि इसमें यह नहीं दशार्या गया कि इस संवत् का नाम क्या था? ज्ञातव्य कि इस युग में समूचे मालवा प्रदेश में मालवा संवत् और विक्रमी संवत् का ही प्रचलन था तथा विवेच्य भू-भाग भी मालवा का ही अंश था। लेख की पंक्ति संख्या 7 की द्वितीय पंक्ति में राजा देवदत्त को 'सामन्त' संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। सामन्त पद महत्वपूर्ण अधिकारी का होता था जो स्वतन्त्र शासक न होकर किसी बड़े राजा के अधीनस्थ होते थे। कोशवर्धन (शेरगढ़) के उक्त वर्णित नागवंशी राजा संभवत कन्नौज के 'रघुवंशी प्रतिहारों' के आधीन रहने की संभावना है। ज्ञातव्य कि गंगधार में विश्ववर्मन के 5वीं सदी के प्रसिद्ध शिलालेख में उसे 'औलिकरवंशी' राजा दशार्या है परन्तु यह भी स्पष्ट है कि वह मुख्यतयाः दशपुर के गुप्तवंशी नरेश कुमारगुप्त द्वितीय का सामन्त था। तब स्पष्ट रूप से यह माना जा सकता है कि देवदत्त भी इस प्रदेश का स्थानीय शासक रहा होगा।


इस लेख की 17वीं पक्ति में इस स्थल का नाम कोशवर्घन लिखा मिलता है। इस लेख का रचनाकार 'जज्जक' नामक साहित्यकार था। वह शाक्य कुल का थाइसे पाषाण शिला पर 'चणक' नामक व्यक्ति ने उत्कीर्ण किया था। इस लेख से ज्ञात होता है कि ईसा की आठवीं सदी में कोशवर्धन (शेरगढ़) पर नागवंशी राजा राज्य करते थे तथा वे बौद्धधर्म के अनुयायी थे। लेख में वर्णित बौद्ध मंदिर का निर्माण इसके तथ्य को पुष्ठ करता है। यह भी इस लेख से सिद्ध होता है कि आठवीं सदी में इस भू-भाग में बौद्ध धर्म का पर्याप्त रूप से विस्तार था।


यद्यपि प्रस्तुत विवरण यथोलब्धि लिये माना जा सकता है, परन्तु अभी इसमें वर्णित शासक, धर्म, निर्माण, मत के सम्बन्धों का प्रसार तत्कालीन समय में कहा तक थे तथा उनकी जानकारी क्या थी एवं कोलवी बौद्ध गुफा के भिक्षुओं से इस स्थल तथा यहां के तत्कालीन शासक का क्या सम्बन्ध था। यह जानना शेष है।