हाडौती के अल्पज्ञात खीची शिलालेख

प्रस्तुत शोध लेख में हाड़ौती के खीची राजपूत वंश की धरोहरों व स्थलों, क्षेत्रों से हाल ही में खोज के दौरान जो शिलालेख, लेखक द्वारा ढूंढ निकाले गये, उनके साथ कुछ अल्पज्ञात खीची शिलालेखों को मिलाकर वर्णन किया गया है। इन लेखों से इस भू-भाग में इस वंश की सुदीर्घ परम्परा पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ना माना जा सकता है। क्योंकि इसमें ऐसे अनेक राजाओं तथा उनके राजपुत्रों व रानियों के उल्लेखों के साथ अन्य राज्यों के राजाओं से सम्बन्ध तथा विवाह गौत्रादि आये हैं, जो इतिहास की पुस्तकों में उल्लेखित ही नहीं है। प्रस्तुत लेख में यह भी उल्लेखनीय होगा कि खीची राजवंश के सर्वाति प्रसिद्ध राजसंस्थान जलदुर्ग गागरोन से अभी किये गये उत्खनन में एक भी शिलालेख इस वंशसे सम्बन्धित नहीं मिला है। जबकि इस दुर्ग का इतिहास ही खीची वंश के राजाओं की वीरता से भरा हुआ मिलता है।


प्राचीन परमार राजवंश के शासन काल के पश्चात् हाड़ौती (कोटा-बूंदी-झालावाड़-बारां) भू-भाग पर चौहान राजपूत वंश की खीची शाखा का राज्य स्थापित होकर दीर्घावधि तक चला। यह वंश इस भू-भाग में 12वीं सदी से निरन्तर 18वीं सदी तक चला, जिसके प्रमाण इस क्षेत्र के इतिहास ग्रन्थों के अलावा शिलालेखों से भी मिलते है। परन्तु इनमें से वर्तमान में कुछ शिलालेखों को तो पूर्व में ही ज्ञात कर प्रसारित किया गया था लेकिन फिर भी इस वंश के ऐसे कई लेख अभी- अभी प्रकाश में आये है जिन पर न तो किसी इतिहासकार ने कभी दृष्टि डाली और ना ही किसी ग्रन्थ में इनका भूला बिसरा उल्लेख हुआ। दीर्घावधि में ये शिलालेख उपेक्षा के कारण धुंधले होकर अपना अस्तिव छोड़ने लगे। इन कारणो से हाड़ौती प्रदेश के दूरस्थ जंगलों, पहाड़ों पर इस वंश की इतिहास धरोहर, दुर्ग, मंदिर, हवेलियाँ, स्मारक सब काल के थपेड़ों से अपना अस्तिव खो बैठे। आज इतिहास में भी इनका केवल 6 पंक्तियों से अधिक का कोई परिचय नहीं मिलता।



प्रस्तुत शोध लेख में हाड़ौती के खीची राजपूत वंश की धरोहरों व स्थलों, क्षेत्रों से हाल ही में खोज के दौरान जो शिलालेख, लेखक द्वारा ढूंढ निकाले गये, उनके साथ कुछ अल्पज्ञात खीची शिलालेखों को मिलाकर वर्णन किया गया है। इन लेखों से इस भूभाग में इस वंश की सुदीर्घ परम्परा पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ना माना जा सकता है। क्योंकि इसमें ऐसे अनेक राजाओं तथा उनके राजपुत्रों व रानियों के उल्लेखों के साथ अन्य राज्यों के राजाओं से सम्बन्ध तथा विवाह गौत्रादि आये हैं, जो इतिहास की पुस्तकों में उल्लेखित ही नहीं है। प्रस्तुत लेख में यह भी उल्लेखनीय होगा कि खीची राजवंश के सर्वाति प्रसिद्ध राजसंस्थान जलदुर्ग गागरोन से अभी किये गये उत्खनन में एक भी शिलालेख इस वंश से सम्बन्धित नहीं मिला है। जबकि इस दुर्ग का इतिहास ही खीची वंश के राजाओं की वीरता से भरा हुआ मिलता है।


2. खीची वंश के इस भू-भाग में मिले मध्ययुगीन शिलालेखों व इतिहास से यह तथ्य ऊभरकर आता है कि उस युग में यह राजवंश हाड़ौती से आरम्भ होकर मालवा के खीलचीपुर तक होता हुआ प्राचीन विदिशा नगरी के निकट भेलसा क्षेत्र तक था।


3. उस समय इस विराट भू-भाग को ‘खीचीवाड़ा' कहा जाता था। 4. कालान्तर में बूंदी राज्य के हाड़ा शासकों ने खीचीवाड़ा के खीची शासकों को मुगलों की सहायता में शनैः शनैः पराभूत करके अपनी राजसत्ता का विस्तार किया। फिर यहाँ हाड़ा राजवंश की सत्ता के कारण यह क्षेत्र हाड़ौती कहलाया।


5. इस क्षेत्र में पुराने लोग तो आज भी यहां की खीची धरोहरों को दखते ही इस क्षेत्र को 'खीचीवाड़ा' कहते है


प्रस्तुत लेख में कुछ अल्पज्ञात तथा कुछ अभी तक अज्ञात व अप्रकाशित ऐसे खीची शिलालेख जिन्हें लेखक ने मई 2013 ई. में खोजा, पढ़ा है का मूल वर्णन सव्याख्या द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत है। इसमें सन्दर्भयुक्त लेख यद्यपि समाहित है परन्तु उनके मूल ग्रन्थ अब अनुपलब्ध है। ।


वर्तमान हाड़ौती प्रदेश में खीची राजवंश से सम्बन्धित प्राचीन स्थलों में खटकड़, गागरोन, महुमैदाना, रातादेवी, मानसरोवर, चाचोरनी, दराघाटी, मोठापुर, गूगौर, बैसार, इन्द्रगढ़, खातौली, तलवास, घाटौली ऐसे प्रमुख स्थल है जिनका हाड़ौती के खीची इतिहास में उल्लेख मिलता है।


खीची राजवंश से सम्बन्धित उल्लेखनीय शिलालेख झालावाड़ जिले के रातादेवी क्षेत्र के है। इस क्षेत्र में रातादेवी मंदिर के समक्षमानसरोवर झील के किनारे अनेक खीची राजाओं के मृत्यु स्मारक है जिनमें उनके साथ उनकी रानियों के भी चित्र ऊकरे हुए है। इनका शब्दशः वर्णन इस प्रकार है -



प्रथम शिलालेख एक पाषाणी छतरी के मध्य स्थापित है इसमें


1. “संवत् 1550 (सन् 1493 ई.) का राजा सिरी महाराजाधिराज गंगादास खीची देवलोक गया" का उल्लेख है।


2. "संवत् 1578 (सन् 1521 ई.) वर्षे पोष शुक्ल, ग्यारस, सोमवार का दन राजा श्री रावश्रिय देवलोक गया"


इस शिलालेख में रावश्रिय को राजा अंकित किया गया है। लेख में यह भी वर्णित है कि उनके साथ सतलीना, पांचलीना (रानियाँ) क्रमशः सौलंकिनी, सिसौदिनी, रानी गौड़जी, भाऊ केसोरिनी जी, भाडन शक्तावतनी जी थी। इसी लेख में एक स्त्री दासी के रूप में मानी गयी। इस लेख में राजा रावश्रिय को गागरोन दुर्ग का शासक दशार्या है (रावश्रिय गागरोन को धणी) एवं उनका अस्थाई निवास मह-मैदाना (गागरोन के निकट खीची शासकों की एक अन्य राजस्थली) बताया गया है। लेख में उन्हें खीची राजवंशी राजपूत बताया है। उक्त मानसरोवर के किनारे उनकी छतरी बनवायी। लेख के अनुसार रामलोत गोलन नामक व्यक्ति ने यहाँ छतरी के पास गणेश मंदिर बनवाया। वह मालवा के माचलपुर के 'पुरानापुरा' का तकालीन प्रधान था। लेख में इस हवाले के अन्त में भगवान राम का एक प्रशंसात्मक श्लोक भी है।


3. बैशाख शक्ल दसमी संवत् 1516 ख्वांस जी श्री गंगासिंह जी, खीची सेठ करा पुत्र सिरीराम जी देवलोक गया।'


यह लेख यहां के एक भग्न चबूतरे पर स्थित है। इसमें सूर्य-चन्द्र की आकृति के नीचे एक अश्व सवार है, जिसका एक हाथ कन्धे पर तलवार थामे है। इसकी पीठ पर ढाल बंधी है। दूसरा हाथ कुहनी तक है। इसके समक्ष एक स्त्री (सम्भवतः इसकी रानी) खड़ी है। इसके वस्त्राभूषण राजशाही वैभव को दशाते है। यहाँ के अन्य अभिलेख मौसमी मार के कारण अधिकांश भग्न व धुंधले होकर उपेक्षित हो गये है। अब उनके केवल नाम तथा संवत् ही पठन में आते है जो निम्न प्रकार है -


4. राजा हनवन्त सिंह खीची - संवत् 1565 10


5. राजा हरिसिंह खीची - संवत् 155811


6. राजा देवसिंह खीची का पुत्र शिवसिंह - संवत् 1566 12


7. राव राजा शिवदत्त सिंह खीची - संवत् 1555 13


8. राजा श्योसिंह खीची संवत् - 1551 14


9. पुत्र महाराजा रणसिंह खीची - संवत् - 1587 15



उक्त सभी लेख रातादेवी स्थान के निकट के मध्ययुगीन खीची राज्य संस्थान महू-मैदाना के है। रातादेवी मंदिर खीचियों की आराध्या व कुलदेवी का है। यहां उनकी बीजासन माता की मूर्ति स्थापित है। पूर्व से आज तक के हाड़ौती-मालवा के खीची राजपरिवार आज भी नवरात्री पर्व पर इसकी पूजा में आते है। यहां से मात्र 20 कि.मी. दूर इनकी पूर्व में राजधानी महू-मैदाना है जहां अभी भी इनके महल, मंदिर, हवेलियाँ है। उक्त सभी खीची शासक महू-मैदान में शासित रहे परन्तु ये अपने पूर्व पैतृक संस्थान गागरोन दुर्ग से अपना सम्बन्ध बताकर “गागरोन को धणी" के नाम से ही स्वयं को सम्बोधित करते रहे। उक्त क्रमांक 9 संख्या वाले लेख से प्रतीत होता है कि महाराजा पुत्र रणसिंह की मृत्यु स्मृति का यह लेख पूर्व संख्या 2 वाले संवत् 1578 के लेख से सम्बन्धित राजा रावश्रिय के पश्चात् राजगादी पर आसीन हुआ होगा। इस समय को दोनों शासकों का उत्तराधिकारी सम्बन्ध भी माना जा सकता है।


महू-मैदाना मूलतः खीचियों के 2 नगर रहे है। ये वर्तमान में पास-पास है इनमें मैदाना नगर के भग्नावशेषों में दो सती स्मारक है। इन पर केवल संवत् 1571 तथा संवत् 1569 ही पठन में आते है,16 शेष पंक्तियाँ पूर्णतया मिट गयी है। संवत् लेख से प्रतीत होता है यह स्थान भी खीचियों का नगर रहा है।


उक्त क्रमांक लेख संख्या 1 से 9 तक छतरियों के मध्य स्तम्भों पर क्रमवार ऊकेरे हुए है। इनकी अधिकांश छतरियाँ गिर चुकी है। सभी लेखों के शीर्ष के दांये-बायें सूर्य चन्द्रमा तथा इनके नीचे अश्व सवार


सशस्त्र यौद्धाओं के चित्र ऊकरे हुए है। स्त्रियों को शाही परिधान पहने उत्कीर्ण किया गया है। इन चित्रों के नीचे ही उक्त रेखांकित वर्णन अंकित है। प्रत्येक लेख पाषाण स्तम्भ की मोटाई 3 इंच है जिस पर पच्चागुलवाला हाथ बना है पच्चागुंल की यह परम्परा सनातन है तथा आज भी लोक जीवन के त्यौहारों उत्सवों में इसे "थापे' के रूप में दीवारों पर लगाये जाने की परम्परा है।



झालावाड़ जिले के उत्तर पूर्व में स्थित बारां जिले का प्राचीन ग्राम मोठपुर मध्ययुगीन खीची राजाओं की राजधानी रहा है। यहाँ पर कई खीची शासकों के शिलालेख पठन में आते है। यहाँ के मुख्य तालाब की पाल (किनारे) पर निम्न लेख है


10. संवत् 1550 साके 1415 आषाढ़ सुदी दसमी सोमवारे (अर्थात् 8 जुलाई 1493 ई.) कू राजतिलक सिरी धारूदेव खीची जायलवाल का साथ (धीरादेवी) बागडनी अर सूरतदे (सूरतदेवी) कुछवाही सती हुई।


उक्त लेख मूलतः एक सती स्मारक है। इसमें धारूदेव खीची शासक का उल्लेख संवत् 1550 का है। यह शासक मूलतः मारवाड़ के जायल गौत्र का था। जायल क्षेत्र के खीची इतिहास प्रसिद्ध रहे है। उक्त लेख में उसकी मृत्यु के उपरान्त उसकी देह के साथ उसकी दो रानियों धीरादेवी व सूरतदेवी के सती होने का विवरण है। ये दोनों रानियाँ क्रमशः मेवाड़ के निकट बांगड़ प्रदेश व जयपुर के कच्छवाहा राजवंश से होनी मानी जा सकती है।


एक अन्य इस प्रकार है


11. संवत् 1555 साके 1420 सावण बदी दसमी सनिवार कू दिण (जुलाई 1498 ई.) को मोठपुर का राजा सिरी कुंभदेव जो जायलवाल धीरादेव खीची कू पुत्र था, देवलोक पधारया। साथ में कछवाही राणी छत्रवती अर दो सौलंकिणी राणियाँ भी सती..........।


उक्त लेख संवत् 1555 में यहां के खीची शासक कुंभदेव की मृत्यु से सम्बन्धित है जो उक्त वर्णित शासक के पश्चात् राजा बना। लेख में उसकी रानी छत्रवती व दो अन्य रानियों के सती होने का भी उल्लेख है


इसी ग्राम की क्षारबाग की बावड़ी पर एक शिलालेख में इस बावड़ी के निर्माण कर्ता वर्मा देव खीची की पत्नी का उल्लेख निम्न प्रकार है।


12. सिरीराज सिरी धारूदेव का पुत्र शक्तुदेव को भ्राता कुंभदेव का पुत्र सीर वमार्देव की राणी उमादे जो रावतसिंह की पुत्री......नेयां बावडी को निरमाण करवायो। संवत् 1557...।


लेख में बावड़ी की निर्माणकर्ता वर्मा देव खीची की पत्नि (रानी) का नाम उमादे है। लेख में उमादे के पति वमार्देव के पिता का नाम व कुंभदेव व उसके भ्राता का नाम शक्तुदेव (शक्तिदेव) व इन दोनों के पिता का नाम धारूदेव (खीची) बताया है। इस बावड़ी को रामबावड़ी कहते है। यहां का एक अन्य लेख वि.स. 1563 मार्गशीर्ष बुदी तेरस साके 1427 का है। इसमें यहां के राजा शक्तिसिंह देव धीर देव (धारू) के पुत्र की मृत्यु होने व उसके साथ दो रानियों के सती होने का हवाला है।


एक और लेख1 वि.स. 1572 ज्येष्ठ सुदी, गुरूवार साके 1437 का है। जिसके अनुसार शक्ति देव का पुत्र करमचन्द के साथ सिसौदिनी रानी के यहां सती होने का उल्लेख है।


इसी क्रम में एक अन्य लेख 22 वि.स. 1580 बैसाख बुदी ग्यारस सनिवार, साके 1445 का है। इसमें खीची राज सिरी राव के साथ बाई जी करमा पडिहार व गेहलोतनी जी के यहाँ पर सती होने का हवाला है।


उक्त लेखों की सबसे विशिष्ठ बात यह है कि इनसें यह ज्ञात होता है कि मोठपुर खीची शासकों का राज्य रहा है तथा इसमें उक्त शासक हुए है एवं उनके विवाह सम्बन्ध त्तकालीन प्रतिष्ठित राजघरानों से थे। संभावना है ये समस्त खीची शासक गागरोन के खीची शासकों की परम्परा के रहे होगे। मोठपुर में एक शक्ति सागर तालाब है जिसका निर्माण धारूदेव खीची ने करवाया था परन्तु उसे उसके पुत्र शक्तिदेव ने पूर्ण किया। यद्यपि इसका उल्लेख संक्षिप्त रूप में इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत ने भी किया है।



झालावाड़ से 45 कि.मी. दूर उत्तर में कोटा बस मार्ग पर स्थित प्रसिद्ध ग्राम दरा है। यह ग्राम गुप्तकालीन शिल्प वैशिष्ठय के मंदिरों के लिये प्रसिद्ध है। इसी दरा एवं निकट के नारायणपुरा ग्राम के मध्य की मुकन्दरा पर्वतमाला के ऊपर स्थित एक पुराने दुर्ग के अवशेष है। इनमें एक प्राचीन शिव मंदिर का 


शिलालेख वि.स. 1657 का है जो यहां के खीची राजा महाराज कल्याणदास व उनके परिवार तथा मंदिर निर्माण का उल्लेख करता है। लेख इस प्रकार है 23


13. संवत् 1657 साके 1552, सौम्य संवत्सर दक्षिणायन, सरद ऋतु आसोज कृष्णा दीतवार दनमान 36 घड़ी का समय खीची चौहाणवसी महाराजा सिरी रावत परसिंह देव का त्तपुत्र सिरी रावत महाराज उनका पुत्र चन्दरसेन, उनका पुत्र कल्याण दास ने ई सिव मंदिर को निरमाण करवायो। उनको सुभ हो।


इस लेख का रचनाकार ‘कम्मा' था, उसने महेश नामक धार्मिक व्यक्ति के पुत्र गुरूकृष्ण की उपस्थिति में इसकी रचना की थी तथा इस लेख को पाषाण शिला पर 'जैसरमन' ने अंकित किया था। इस लेख में महाराजा कल्याणदास के पिता चन्द्रसेन सहित उनके पूर्वजों का उल्लेख है जो यह तथ्य पुष्ट करता है कि उस युग में दरा क्षेत्र पर खीची राजपूत वंश का शासन था। उल्लेखनीय है कि इस स्थान से पूर्व में लगभग 20 कि.मी. पर गागरोन दुर्ग स्थित है।


इसी क्रम में हाड़ौती प्रदेश में खीची राजवंश का एक प्रसिद्ध संस्थान गूगौर है जहां से एक दर्जन से अधिक ऐसे शिलालेख लेखक ने खोजे है जो पूर्णतया अप्रकाशित व अप्रसारित है। इनका इतिहास व शब्दशः विवरण इस प्रकार है।


हाड़ौती संभाग के बारा जिला मुख्यालय से 68 किमी दूर छीपाबड़ौद कस्बे के अन्तर्गत गूगौर का दुर्ग है। खीची राजपूतों द्वारा निर्मित यह दुर्ग 800 वर्ष पूर्व पहाड़ी पर बनवाया गया था। इस पहाड़ी दुर्ग के नीचे पार्वती नदी प्रवाहित होती है। 18वीं सदी तक इस पर खीची राजपूतों का आधिपत्य रहा। इसका प्रमाण इस क्षेत्र के कुछ खीची शिलालेखों से होता है। प्रतीत होता है कि 18वीं सदी के बाद यहां के खीची राजपूत परिवार मध्यप्रदेश (मालवा) के अन्य खीची ठिकाने गुना, खिलचीपुर, राधोगढ़ आदि की ओर चले गये।


गूगौर दुर्ग की मुख्य ख्याति यहां हुए जल जौहर के विराट अनुष्ठान से है। ऐसे जौहर का उदाहरण देश के अन्य किसी दुर्ग में देखने, पढ़ने को नहीं मिलता है। गूगौर दुर्ग के नीचे बहने वाली पार्वती नदी गूगौर दुर्ग के नीचे बहने वाली पार्वती नदी में एक प्राचीन 'रानी दह' है। सैकड़ो वर्ष पूर्व खीची शासकों पर हुए यहां एक आक्रमण के दौरान जब खीची सेना पराजित होने लगी तब इस दुर्ग की वीरांगनाओं ने अपनी रक्षार्थ इस दुर्ग से इस जलदेह में छलांग लगाकर 'जल जौहर' का अनुष्ठान कर अपनी जीवन लीला समाप्त की थी। तभी से इस दह को 'रानी देह' कहा जाता है। इस प्रकार भारतीय दुर्ग परम्परा के अनेक जौहरों में इस जल जौहर की घटना एक विलक्षण प्रमाण है।


17वीं सदी के पूर्वकाल में गूगौर दुर्ग पर कोटा महाराव माधो सिंह के छोटे भाई हरिसिंह का राज्य था। इसी परम्परा के महाराव दुर्जनसाल हाड़ा ने भी इस दुर्ग पर आधिपत्य किया था। परन्तु उस समय यहां के ठाकुर खीची बलभद्र सिंह ने इस पर अपना अधिकार बनाये रखा। 24 18वीं सदी के आरम्भ में बंदी के शासक क्षेत्रपाल के निधन के बाद उसके द्वितीय पुत्र भीम सिंह को यह दुर्ग मिला। इसके पश्चात् कोटा के हाड़ा राजपूत शासकों और मराठों के मध्य ऐसा मोड़ आया कि गूगौर का यह दुर्ग मराठों द्वारा नजराने वसूल करने का केन्द्र बन गया। अंग्रेजी राज्य के समय फिर यह दुर्ग छबड़ा के साथ टोंक राज्य में चला गया। गूगौर के इस दुर्ग की संरचना अनूठी है। यह तीन भागों में विभक्त है। ऊँची पहाड़ी पर बने इस दुर्ग के एक भाग में खीची शासको का शाही निवास था। द्वितीय भाग में फौजी रिसाला रहा करता था। दुर्ग के अन्दर आज भी महलों के खण्डहर, पानी के टांके, मंदिर व कचहरी भवन स्थित है। इस दुर्ग में खीचियों की आराध्य बीजासन देवी का भी मंदिर है। परन्तु अपवित्रता की आशंका से इस मूर्ति को दुर्ग के नीचे नदी तट पर स्थापित किया गया था। प्रतिवर्ष फाल्गुन माह में यहाँ 15 दिवसीय भव्य मेला आज भी आयोजित होता है। यह खीची राजपूतों की कुलदेवी के रूप में मान्य है।


 पार्वती नदी के बाए तट पर गूगौर दुर्ग के खीची शासकों का क्षार बाग है जहाँ इनके लगभग एक दर्जन मृत्यु स्मारक छतरियों तथा चबूतरों के रूप में है। ये सती स्मारक है, जो यहाँ के खीची शासको के मध्ययुगीन नामों, गौत्रों को प्रकट करते है। हाड़ौती तथा मालवा के शिलालेखों की परम्परा में अभी तक ये लेख पूर्णतया अचर्चित, अप्रकाशित है। इनका क्रमवार विवरण इस प्रकार है - 14. वि.स. 1410 माघ सुदी दसमी बुधवार गूगौर राजाधिराज श्री खीची चौहान कंवर कृष्ण सिंह देवतस्य सत्ती बहु तंवरी कल्यान दे जी। 25



15. वि.स. 1568, दो बैसाख सुदी, अष्टमी बुधवार राजा श्री धीकादेव (गोयंद) खीची हीरा दे सती। 26


16. वि.स. 1675 अगहन सुदी नवमी सोमवार


महाराज अधिराज सालवाहन राजा गूगौर जी जाकी राजधानी (मऊ) थी, जब वहाँ बादसाही मदद सू हाड़ा दुर्जनसाल को दखल होया तो ये गूगौर आ गया। 27


17. वि.स. 1590 माघ सुदी एकम बुधवार...........28


18. वि.स. 1704 बैसाख बुदी अष्टमी साके 1559, रामसिंह सत्तियाँ ...........29


19. वि.स. 1707 आसोज बुदी एकम सोमवार सती महाराज अधिराज महाराज सिरी गरीबदास जी सालवाहन का पोते था और दीपसिंह का पुत्र था। इनकों गूगौर की गादी पर बादशाह शाहजहाँ ने बैठाया था। 30


22. वि.स. 1724 चैत्र बुदी चार गुरूवार राजश्री रामसिंह जी 33 ........


23. वि.स. 1737 मार्ग शीर्ष बुदी सात शाके 1602, महाराज सिरी सालवाहन (मूलतः यह सालवाहन के किसी पुत्र या पौत्र का लेख है) 34


वि.स. 1750 माघ सुदी खीची चौहान महाराज सिरी गरीबदास जीत्त पुत्र महाराज लाल सिह जी त्तपुत्र महाराज सिरी कंवर बख्त सिंह जी बहू राठौड़ जी अखेकंवरी ख्वास बिन्दा जी 35............. 24. वि.स. 1754 माघ सुदी पन्द्रह, रविवार साके 1720, खीची चौहान महाराज दीपसिंह जी त्तपुत्र महाराज गरीबदास जी त्तपुत्र महाराज सिरी लालसिंह जी (1) बहु जी राठौड़ राजकंवरी जी (2) बहुजी राठौड़ बख्त कंवरी जी (3) बहुजी सेंग्री (4) बृजकंवरी जी ख्वास (5) रामकली वीराजी वरगोजी (6) अचनी जी (7)....................... (8)......रोक की मानस (9) कजकल जी (10) चमेली जी। 36



25. वि.स. 1771 आसोज सुदी ग्यारस, सुक्रवार, साके 1636 महाराज अधिराज गरीबदास तदपुत्र महाराज अधिराज श्री विजेसिंह जी, तदपुत्र महाराज अधिराज कोकसिंह जी, 37 ज्ञातव्य कि उक्त सभी राजा गूगौर सालवाहन के पौत्र तथा भूपतिसिंह के पुत्र थे इसी क्रम में आगे की पंक्ति में निम्न उल्लेख है:


26. सती महाराज श्री बहुजी सालखंनी जी स्वरूप कंवरी बेटी जोगीदास जी। एक महासती महाराज श्री सेंगर जी प्रेमकंवरी बेटी ठाकुर मधुकरराव जी की, ..... ........... महासती महाराज श्री चूण्डावत जी हरिकंवरी जी बेटी ठाकुर अदोत सिंह जी की .......... .......... महासती ख्वासनी रोती......... सती ख्वासनी सदरी वासनी 38.....


27. वि.स. 1781 बैसाखसुदी नवमी सोमवार खीची चौहान महाराज श्री किशनसिंह जी तदपुत्र महाराज करमसिह जी तदपुत्र महाराज श्री रामसिंह जी बहुजी श्री नाथावत जी परम कवरी जी 39..........


28. वि.स. 1805 मिति बैसाख सुदी ग्यारस बृहस्पतिवार 40............



उक्त शिलालेख गूगौर में 15वीं से 19वीं सदी की अवधि के है जो निरन्तर उपेक्षा से अपने अंकन संवत्, विवरण छोड़ने लगे है। ये यहाँ के खीची नरेशों व उनके वंशजो, गौत्रों सम्बन्धियों के है जिसमें महत्वपूर्ण जानकारियां स्पष्ट है। ये मूलतः सती लेख है। अभी तक अप्रकाशित तथा स्थानीय इतिहास में अचर्चित रहे इन लेखों से हाड़ौती-मालवा के खीची राजपूत राज्यों के इतिहास, वंशक्रम में काफी महत्वपूर्ण सूत्र मिल सकते है, अतः इन पर शोध की अपेक्षा है।


हाड़ौती के ये खीची राजवंशीय शिलालेख न केवल हाड़ौती के इतिहास, पुरातत्त्व की निधि है वरन् ये समूचे राजस्थान और मालवा के अभिलेखीय इतिहास के मध्ययुगीन ऐसे उज्जवल प्रमाण है जो अनेकों राजवंशों से अपने सम्बन्धों तथा उक्त दोनों प्रदेशो की सांस्कृतिक धारा को भी समन्वित करते है क्योंकि राजस्थान के हाड़ौती (गागरोन) से खीची राजवंश बाद में मालवा की ओर गया था।



सन्दर्भ -


1. जगतनारायण (स.) - कोटा राज्य का इतिहास - भाग-1, मूल लेखक- डॉ. मथुरालाल शर्मा, पृ. - कोटा राजवंश, (अन्तिम पृष्ठों पर)


2. शर्मा ललित - गागरोन, इतिहास पुरातत्त्व और पर्यटन पृ. 15,


3. कनिघम - आर्कियालॉजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट, भाग-2, पृ. 293-298 सन् 1862 ई.


कनिघम - आर्कियालॉजीकल सर्वे ऑफ इण्डिया रिपोर्ट, भाग-2, पृ. 298 सन् 1862 ई.


खान, एस.आर. - हाड़ौती के बोलते शिलालेख, पृ. 26


6. लेखक का व्यक्तिगत सर्वेक्षण


ढोढियाल बी.एन. -झालावाड़ ड्रिस्टीक गजेटियर-1964 ई. पृ. 295


उक्त, संन्दर्भ सं. 8 से 15 तक के संदर्भ लेखों का व्यक्तिगत सर्वेक्षण ढोढियाल के अतिरिक्त स्वयं लेखक ने भी उक्त स्थान पर जाकर किया है।


16. लेखक का व्यक्तिगत सर्वेक्षण


17. गहलोत जगदीश सिंह - राजपूताने का इतिहास, भाग-2 पृ. 31, स्वयं लेखक ने भी इस स्थान पर जाकर उक्त लेखों का अध्ययन किया है।


18-19. उक्त


20. लेखक का व्यक्तिगत सर्वेक्षण


21. उक्त


22. उक्त


23. कर्नल जेम्स टाड - राजस्थान का इतिहास (हिन्दी अनुवाद) द्वितीय भाग, पृ. 1078-1079


24. जगतनारायण (स.) कोटा राज्य का इतिहास पूर्वोक्त - मथुरालाल शर्मा कृत, भाग-2 पृ. 25, 26


25. से 40 सन्दर्भ के समस्त शिलालेखों का वाचन, पठन स्वयं लेखक ने विवेच्य स्थल पर जाकर किया तथा उन्हें मालवा के जाने माने कला मर्मज्ञ इतिहासकार, साहित्यकार नर्मदा प्रसाद उपाध्याय से पुष्ठ करवाया है।