हाड़ौती की जैन अभिलेख परम्परा

उल्लेखनीय है कि पुरातत्त्व के अलग-अलग कालखण्डों में अलग-अलग लिपियां, मत आदि प्रचलित रहे हैं अतः इन सभी की शैली भी इनमें प्रयुक्त होती है, जिनसे तत्कालीन भाषा, कार्यों तथा विचारों का उद्देश्य प्रचुरता से प्राप्त होता है। प्रस्तुत प्रसंग में वर्तमान हाड़ौती प्रदेश (कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़ जिलों) के अन्तर्गत विभिन्न नगरों, कस्बों, गांवों तथा उनके मंदिरों आदि की मूर्तियों, स्तम्भों से अवाप्त जैनधर्म के विभिन्न अभिलेखों का परिचायत्मक विवरण किया गया है, जिनसे इस क्षेत्र में जैनधर्म के प्रभाव तथा संस्कृति का परिचय मिलता है।


प्राचीन खण्डहरों और मुद्राओं की भांति इतिहास, पुरातत्त्व की पुष्ट जानकारी हेतु अभिलेख सर्वाति महत्वपूर्ण और 'विश्वसनीय साधन है। अनेक स्थलों पर जहां पुरातत्त्व मूक और अस्पष्ट होता है, वहां अभिलेखों से ही जानकारियां मिलती हैं और इसीलिये "बोलते पाषाण" कह कर पुरातत्त्वविदों ने इनकी महत्ता को स्वीकारा है। अभिलेख अधिकांशतः खण्डहरों, इमारतों, मन्दिरों, मठों, मूर्तियों की पीठिकाओं, दबी बस्तियों, मृत्युस्थलों, बावड़ियों, स्तम्भों आदि पर प्राप्त होते हैं। इनकी खोज और पठन बड़ी श्रमसाध्य होती है। इनमें एक-एक शब्द, संवत् के प्रति मुक्त सोच, शुद्धिकरण तथा इनके भावार्थ करना सबसे अधिक दुष्कर कार्य है। ऐसे दुष्कर मन्थन, अध्ययन के पश्चात् ही इनसे तत्कालीन संस्कृति, उपलब्धि और वंशानुक्रम व अनेक कार्यों का प्रमाणिक एवं मान्य विवरण प्राप्त होता है।



उल्लेखनीय है कि पुरातत्त्व के अलग-अलग कालखण्डों में अलग-अलग लिपियां, मत आदि प्रचलित रहे हैं अतः इन सभी की शैली भी इनमें प्रयुक्त होती है, जिनसे तत्कालीन भाषा, कार्यों तथा विचारों का उद्देश्य प्रचुरता से प्राप्त होता है। प्रस्तुत पुरा प्रसंग में वर्तमान हाड़ौती प्रदेश (कोटा, बूंदी, बारां, झालावाड़ जिलों) के अन्तर्गत विभिन्न नगरों, कस्बों, गांवों तथा उनके मंदिरों आदि की मूर्तियों, स्तम्भों से अवाप्त जैनधर्म के विभिन्न अभिलेखों का परिचायत्मक विवरण किया गया है, जिनसे इस क्षेत्र में जैनधर्म के प्रभाव तथा संस्कृति का परिचय मिलता है।



क्षेत्र के झालावाड़ जिले के खानपुर कस्बे में चांदखेड़ी का दिगम्बर जैन मंदिर इस दिशा में शिलालेख की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण इसलिये माना जा सकता है कि यह मंदिर प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का है। इसमें ऋषभदेव की मूर्ति के स्कन्ध पर संवत् 512 का अंकन है। यद्यपि इस संख्याक लेख का प्रमाणिक आधार अभी भी गवेष्य अवश्य है, परन्तु संभावना हो सकती है कि यह वीर जैन सवंत् हो। क्योंकि वीर संवत् से सम्बन्धित लेखों की प्राचीन जिन मूर्तियां राजस्थान के जोधपुर जिलान्तर्गत मण्डोर के धुधेला तालाब के खोखर मंदिर के पीछे मिली थी, जिन पर वीर संवत् 203 अंकित है। इस आधार पर चांदखेड़ी जैन मंदिर की उक्त मूर्ति के स्कन्ध पर खुदे 512 संवत् का प्रमाणीकरण हो जाये तो इस क्षेत्र का जैन धर्म के पुरातात्त्विक इतिहास में नया पृष्ठ खोला जा सकता है।


बूंदी जिले के केशोरायपाटन नगर में एक टीले पर जैन मंदिर है, जिसमें अनेक तीर्थंकर की मूर्तियां है। इनमें सबसे प्राचीन मूर्ति 8 इंच ऊंची श्यामवर्णीय है। इसकी निर्माण तिथि ज्येष्ठ सुदी 3 संवत् 664 (607 ई.) स्पष्ट अंकित है। यह तिथि प्रदेश के प्राचीनतम जैन अभिलेखों में मानी जा सकती है।



2. यहां की अन्य जैन तीर्थंकर मूर्तियों पर वि.स. 1321 (1264 ई.), वि.स. 1350 (1293 ई.), वि.स. 1419 (1362 ई.), वि.स. 1549 (11492 ई.), वि.स. 1581 (1424 ई.), वि.स. 1746 (1689 ई.), वि.स. 1826 (1769 ई.), वि.स. 2016 (1956 ई.), वि.स. 2032 (1975 ई.) के अभिलेख उत्कीर्ण हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि उक्त जैन तीर्थंकर मूर्तियां उक्त संवत् में निर्मित हुई थी। इन लेखों में तिथि तथा वार भी है, परन्तु मूर्तियों के जलाभिषेक के कारण वे अंकन धुंधले होने से स्पष्ट रूप से पठन में नहीं आते हैं। इन अभिलेखों से यह तो ज्ञात हो ही जाता है कि ईसा की 7वीं सदी से लेकर इक्कीसवीं सदी तक निरन्तर जैनधर्म का प्रभाव इस क्षेत्र में अबाध गति से होता रहा है।


मुख्यालय बूंदी नगर में भी जैनों के अनेक परिवार 14वीं सदी में निवास करते थे। उनके प्रमाण यहां बने जैन मंदिरों की भव्यता से लगा सकते हैं। __


3. यहां के पार्श्वनाथ जैन मंदिर की तीर्थंकर पार्श्वनाथ मूर्ति पर इसके निर्माण की तिथि वि.स. 1744 (1687 ई.) अंकित है। इसी के निकट एक अन्य तीर्थकर की यहां स्थापित मूर्ति पर वि.स. 1331 (1274 ई.) निर्माण तिथि अंकित है।



बूंदी जिलान्तर्गत एक प्राचीन नगर नैनवा है। इतिहास में इस नगर का नाम जैनधर्म के प्रमुख केन्द्र के रूप में विख्यात है। यहां अनेक ऐसे जैन अभिलेख हैं, जिनमें जैन मूल संघों के गणों का नामोल्लेख है।


4. यहां से प्राप्त एक अभिलेख वि.स. 1084 (1024 ई.) का है, परन्तु इसका विवरण अभी गवेष्य है। यहीं से प्राप्त वि.स. 1183 (1226 ई.) का अभिलेख भी इसी स्थिति में है। एक अन्य लेख यहां के जैन स्तम्भ का है, इसकी भाषा संस्कृत है। परन्तु इसमें 2 पंक्तियां ही पठन में आती है। अभिलेख के ऊपरी भाग में तीर्थंकर महावीर स्वामी की 9 इंच की मूर्ति का अंकन है, जबकि लेख के अक्षरों का आकार 0.5 गुणा 0.4 वर्ग इंच है। लेख की 2 पंक्तियों का पाठ इस प्रकार है:


सं. 1183 काति सुदी 10 धर्कट जाति साहि


ल पुत्र हरिल स्वर्ग गता


इसका आशय है कि धर्कट जाति के साहिल नामक व्यक्ति के पुत्र हरिल का स्वर्गवास कार्तिक सुदी दसमी संवत् 1183 (1126 ई.) को हुआ। संभवतः लेख के अंकन की यही तिथि मानी जा सकती है। लेखक द्वारा स्वयं देखे इसी स्थल पर स्थापित एक अन्य स्तम्भ पर जिसका आकार माप 48 गुणा 12 इंच तथा अंकित अक्षरों का माप 0.1 गुणा 0.1 इंच है, मूलतः संस्कृत निष्ठ है। यह 3 पंक्तियों मात्र का जैन अभिलेख है, जिसके उर्ध्व भाग पर जैन तीर्थकर मूर्ति का अंकन है। यद्यपि लेख के सम्पूर्ण अक्षर कोशिशों के बाद भी सुपाठ्य नहीं हो पाये परन्तु फिर भी जो कुछ पठन में आया उसका पाठ निम्नतया हैः



1, संवत् 133.......वदि। थींद देव..........पुत्र। ३३प्रणमत।


उक्त पठन से ज्ञात होता है कि उक्त अस्पष्ट संवत (14वीं सदी) में थीदं देव के किसी पुत्र की मृत्यु हुई थी। इसी क्रम में यहां के एक अन्य स्तम्भ पर जिसका आकार 24 गुणा 11 इंच है। इसमें खुदे अक्षर 07 गुणा 01 इंच के हैं।


इसमें 6 पंक्तियों का एक अभिलेख है, जिसके शीर्ष पर तीर्थकर मूर्ति का अंकन है। लेख का पाठ इस प्रकार है:


||ॐ।। श्री सर्व..........पतिग.


नी........रति पति.......रणजी...


....संवत् 1333......श्रीमूल संघेबलात्कार


गणे सरस्वती गच्छे कुन्द कुन्दाचार्यन्वये


भट्टारक श्री प्रभादेव....शिष्यः श्री पदमनन्दि देवः तस्मिन।


किसी जैनमतीय श्लोक से आरम्भ उक्त अभिलेख में वर्णित है कि वि.स. 1333(1276 ई.) में मूल संघ के बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ की कुन्दकुन्दाचार्य परम्परा के भट्टारक प्रभादेव व उनके शिष्य पद्मनन्दि थे। एक अन्य स्तम्भ पर वि.स. 1351 का जैन अभिलेख निम्नांकित प्रकार का है, जो 4 पंक्तियों का लेखक के पठन में आया है।


॥ॐ।। स्वस्ति श्री संवतु 1351 वर्ष, काती सुदी 15 भट्टारक प्रताप देव सा, ........शिष्य .......पण देव


जैन मतीय एक अन्य अभिलेख 6 पंक्तियों का है, जो मूलतः मृत्यु अभिलेख है। यह संस्कृत भाषा में है।


॥ऊँ संवतु 1351 वर्षे काती सदि 15 भट्टारक प्रता दे.


वतत्सि य भ......देव, साधु जगदेव पुत्र पदम् सींह


गल वा वाला हालू प्रमाण ति सुम।


उक्त लेख में भट्टारक प्रतापदेव के शिष्य की मृत्यु कार्तिक सुदी 15 संवत् 1351 (1294 ई.) में होना ज्ञात होता है। यद्यपि शिष्य नाम स्पष्ट रूप से पठन में नहीं आया परन्तु ज्ञात होता है उक्त अवसर पर साधु जगदेव के पुत्र पदमसिंह तथा गलवा वाला हालू उपस्थित थे। एक अन्य स्तम्भ पर 6 पंक्तियों का जैन अभिलेख इस प्रकार है। इसके शीर्ष पर किन्हीं जैन आचार्य की मूर्ति का अंकन


संवत् 151 (5), आश्विन मूल


संघे, छत्रीकार पिता........आचार्य


उक्त अभिलेख की तिथि संवत् 1515 है। इसमे मूल संघ के किन्हीं जैन आचार्य की मूर्ति उत्कीर्ण है। संभव है इन्हीं दिवंगत जैनमुनि की स्मृति में इस छतरी का निर्माण कराया गया होगा।


इस नगर के सरोवर नवल सागर के दक्षिण भाग में कवंर की छतरी के समीप एक छतरी है इसमें वि.स. 1543 (1486 ई.) का 7 पंक्तियों का एक जैन अभिलेख है, जो सती से सम्बन्धित है।


ॐ सिद्धि ।। संवत् 1543 वर्षे भाग


सुदी 5 शनिवारे उत्तराषाढ़


नक्षत्रे सा.नाथ.........को दया.....


सा....गैपा सुत सती सी


ला सहित देव लो ..


के गता .......सुमं भव


तु।। साके 1408।।


उक्त लेख मूलतः सती लेख है, जो गैपा के पुत्र के साथ सती हुई, उसकी पत्नी शीला का है, परन्तु इसमें गैपा के पुत्र (शीला के पति) का नामोल्लेख नहीं है।


___ इसी नगर के छोटा तालाब के किनारे एक जैन अभिलेख वि.स. 1989 (1875 ई.) का है। इसमें कई महत्वपूर्ण तथ्यों का हवाला है। संवत् 1989 विक्रमादेय चैत्र मासे शुक्ल पक्षे षष्ठयांतियों मंगलवासरे श्री महाराजाधिकराजे बून्दी नरेश ईश्वरीसिंह जी क राज्यान्तर्गतें नैणवां नगरे बिम्ब प्रतिष्ठायां दीक्षा महोत्सव समये नीचे की पट्टिका का अंकित लेख इस प्रकार है:


दिगम्बर जैन सम्प्रदाय मूल संघ सरस्वती गच्छे बलात्कारगणनान्तर्गत


अग्रवंशोदभवानुं आग्रहेण प्रतिष्ठाचार्य वर्ये केकड़ी नगर निवासी सिमिः


पण्डित धन्नालाल महोदयै


।। श्री जिनेन्द्र पादुका एषा संस्थापिते।


उक्त लेख में वर्णित वि.स. 1989 में बून्दी नरेश ईश्वरसिंह के राज्यकाल में उक्त नगर में जैन मूर्ति की प्रतिष्ठा एवं दीक्षा के अवसर पर दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के मूल संघ के सरस्वती गच्छ के बलात्कार गणान्तर्गत अग्रवाल वंशीय केकड़ी (अजमेर) वासी धन्नालाल पंडित ने तीर्थंकर महावीर स्वामी की चरणपादुका स्थापित कराई।


हाड़ौती क्षेत्र के बारां जिले में भी जैनधर्म के अनेक अभिलेख उल्लेखनीय है जो इस बात के स्पष्ट प्रमाण है कि यह क्षेत्र भी प्राचीनकाल से ही जैनधर्म से प्रभावित रहा है जिसका प्रभाव आज भी है। यहां इस आशय का भी प्रमाण मिलता है कि इस भू-भाग को लगभग 10 महान जैन भट्टारकों के इस क्षेत्र की गादी पर विराजने का गौरव प्राप्त है। क्षेत्र के अटरू कस्बे के बाजार में भैसाशाह नामक एक श्रेष्ठि द्वारा निर्मित जैन मंदिर है, जिसमें प्रतिष्ठित तीर्थंकर मूर्ति पर केवल तिथि का अंकन लेख इस प्रकार है :-चैत्र सुदी 5, मंगलवार संवत् 508 (451ई.)


इसी नगर से एक पुरातत्त्व महत्व का सहस्त्र जिनपट्ट मिला था, जो सम्प्रति कोटा के राजकीय पुरातत्त्व संग्रहालय में है। इस पट्ट पर निम्न लेख अंकित है :


ई.।। संवत् 1165 ज्येष्ठ सुदी, पंडित श्री मल्लोक नं...... दि छात्रेण शुभंकर (सुभंकर) पुत्रैण सौवार्णिक सहदेवेन कभक्षय निमितेन कारापिंत। श्री परवर्म देव राज्ये।


उक्त लेख से ज्ञात होता है कि उक्त नगर में श्रेष्ठि सहदेव ने नन्दि मल्लोक के शुभंकर नामक शिष्य की आज्ञा से उक्त जैन पट्ट की प्रतिष्ठा संवत् 1165 में करवायी थी। उस समय इस भू-भाग पर (परमार) नृपति नरवर्मन देव का राज्य था। अटरू की दो अन्य जैन तीर्थंकर मूर्तियों पर निम्न अभिलेख पठन में आते है, जो वर्तमान में कोटा के उक्त संग्रहालय में है। इन अभिलेखों का स्वयं लेखक ने भी सामुख्य अध्ययन किया है।


श्री नर वर्मन देव राज्ये संवत 1188 (1) आषाढ़ वदी 1 अ गुवालान्वय साधुजिनवा ल सुत यम देव पु.


उक्त लेख में उक्त जैन तीर्थंकर मूर्ति की प्रतिष्ठा का वर्णन है। इस मूर्ति की प्रतिष्ठा राजा नरवर्मन देव के काल में संवत् 1188 में अग्रवाल साधु जिनवाल के पुत्र यमदेव द्वारा करवाई गई थी। एक अन्य मूर्ति पर अंकित लेख इस प्रकार है :


“श्री सर्व्वनधाचार्य" "साधु सर्व्व कानन्दि"


यह लेख अटरू की जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की मूर्ति पर अंकित है, जो सम्प्रति उक्त संग्रहालय में है। इसमें साधुओं के नामोल्लेख है। अक्षरों के शिल्प से यह लेख ईसा की 10वीं सदी का माना जा सकता है। उक्त लेखों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि मालवा के परमार नरेशों के युग में उक्त नगर में जैन धर्मावलम्बियों का बाहुल्य था तथा वहां जैन साधुओं तथा उनके संघों का आवागमन रहता था।


बारां जिले का रामगढ़ नामक कस्बा भी जैनधर्म का बड़ा केन्द्र है। इस स्थान के निकट पहाड़ पर बनें एक दुर्ग में कई जैन मंदिर है, जिनके जैन अभिलेख इस प्रकार है। उक्त दुर्ग के उत्तर में एक जैन तीर्थंकर मूर्ति पर लघु लेख इस प्रकार है जो विक्रम संवत् 1211 ज्येष्ठ सुदी 15 का है, यह संस्कृत में है।


"आचार (य) माणिक्य देव, लक्षमी) धर, सूत्रधार वालिम।" दुर्ग की एक दालान के बाहर एक जैन तीर्थंकर मूर्ति स्थापित है, इस पर देवनागरी में संस्कृतनिष्ट भाषा का एक भग्न अभिलेख है जो मंगलवार, चैत्र, सुदी 14 वि.स. 1224 (4, अप्रैल 1137 ई.) की तिथि का प्राप्त हुआ है। इस लेख में किसी व्यक्ति द्वारा जैन स्तुति करने का हवाला है। लेख में आचार्य माणिक्यदेव व साधु कालीचन्द के पुत्र साधु देल्हा मेदपाटवासी तथा एक व्यक्ति महिचन्द्र का नामोल्लेख है।


दुर्ग के उत्तर में एक अन्य जैन मूर्ति के निकट के स्तम्भ पर विक्रम संवत् 1232 (1175 ई.) का लेख है, यह संस्कृत में है। इसमें कमलदेव की निषेधिका के निर्माण का उल्लेख है। कमलदेव, मणदेव का शिष्य बताया है। इस निषेधिका का निर्माण जल, पदमसिंह व महाघर नाम के व्यक्तियों ने करवाया थालेख में सोमदेव (पंडित) के शिष्य कर्मदेव का नामोल्लेख है, ये सभी तपागच्छ से सम्बन्धित रहे है।


इस दुर्ग के उक्त स्थल में एक खड़गासन जैन तीर्थंकर मूर्ति के नीचे 13वीं सदी का संस्कृतनिष्ट एक अभिलेख जो मूलतः स्तुति है, मिलता है। इसमें कुछेक भक्तों के नामों का उल्लेख है।


आल्हा पुत्र राय लखम देव ठाकुर हुन्दा, देल्हु दामोदर, कुलिचन्द


यहीं कि एक अन्य तीर्थंकर मूर्ति पर स्थानीय भाषा में कुछेक व्यक्तियों के नाम है। यह लेख 12वीं सदी का है जिसमें फाल्गुन बदी, 1, वि.स. 1237 (1180 ई.) का अंकन है।


__ बारां जिले का शेरगढ़ स्थल पुरातत्त्व की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। यहां के एक कएं में जैन अभिलेख बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका अंकन अति सुन्दर है। इस लेख में 34 पंक्तियां थी, परन्तु इसके शिलापट्ट का मध्य भाग भग्न होने से इसकी कई पंक्तियां नष्ट हो गई। इस अभिलेख में पंक्ति संख्या 6 से 28 तक नष्ट है, परन्तु 1 से 5 तक और 29 से 34 तक पठनीय है। इसमें भी संख्या 29 से 34 तक की प्रति पंक्ति में 46 व पंक्ति संख्या 6 से 28 की प्रति पंक्ति में 20-20 अक्षर है। इस लेख में "श्री वरसेन मुनि ना कृतम-इदम्' शब्द का अंकन है। प्रतीत होता है कि लेख की रचना मुनि वरसेन द्वारा की गई होगी, जो पद्य में है। यह उक्त रचनाकार की विद्वता को भी पामाणित करती है। लेख का पठनीय अंश इस प्रकार है:


तेना स्तुतो वचसा मनसाः प्रसादात्


श्री वरसेन मुनेर मितावाचायत तिरितिल्ली तम


अजा भदन्तेः त्त क्षमितव्यय उतरोस्यायस


ढोर आत्मज दोशा देहाजनेतुः


द्विशचद्द (त.) सम्क ऐका मिते था वेक्रमे


समा- समूहे सीता सप्तमी मधु चामा से नव चे। -


त्यसमदमनीमहात्वसो नेमि जिनस्य करित पुत्रेण व (ब)ल्देवस्य


राघवेण मनिषिता (ना) दान धर्म


निरातेना भष्येन गुनासा (स्या) लिना। -


उल्लेखनीय है कि इस अभिलेख का आरम्भ "ओ"नमों वीतरागाय नमः' से है जो जैनधर्म का मूलमंत्र है। इसके पश्चात् 16वां श्लोक “बसन्द तिलक' छन्दयुक्त है। इस लेख में जैन आचार्यों तथा तीर्थंकरों का यशोगान है। लेख की एक पंक्ति में चैत्य में जैन तीर्थंकर "नेमिनाथ" के महोत्सव को चैत्रमास के शुक्लपक्ष में वि.सं.1162 (1105 ई.) में मनाने का हवाला है। यह लेख इसी महोत्सव से सम्बन्धित है। लेख में इसे अंकित करने वाले है। शिल्पकार का नाम "राघव' तथा उसके पिता का नाम "बलदेव' लिखा है। यहां से प्राप्त एक लघु जैन लेख वि.सं.1285(1228 ई.) का है, इसमें एक प्याऊ को पुण्यार्थ बनाने का हवाला है।


उक्त दुर्ग के बाहर एक जैन मंदिर में प्रतिष्ठित तीन तीर्थंकरों की मूर्तियों के मध्य पादपीठ पर अभिलेख हैं ये तीन तीर्थंकर मूर्तियां शांतिनाथ, कुंथनाथ तथा अरिनाथ स्वामी की है। लेख की भाषा संस्कृत व लिपि देवनागरी है, परन्तु इसमें प्राकृत का प्रभाव दिखायी देता है। हाड़ौती के जैन मतानुनायी का मानना है कि यह लेख विसं. 1191 की वैशाख सुदी 2 मंगलवार 21 मार्च 1134 ई. का है। परन्तु लेखक की मान्यता है कि सन् 1134 ई. में 21 मार्च बृहस्पतिवार था अतः मंगलवार के स्थान पर बृहस्पतिवार होना माना जा सकता है। लेख का पाठ इस प्रकार है। यद्यपि इसका आधा भाग भग्न है।


(शोश्रित) माहिल्ल भर्यान्तिमा.......(श) स्य


तिलके सूर्याश्रमे प (त्त) ने श्री पालो गुणापाल


कश्चविपु


(ले) खंडी - ले कुलेसुव (र्य) चन्द्रमा सविवाम्ब


(ब) रतले-प्राप्तो क्रमण-मालवे(1)श्रीपाल


दिहादेव पालात्म (तना) यो दनेना चिन्तामणि


(ह) सा


(न्तेहश्री) गुणपाल ठकु (क्कु) र सुतादं रूपेण


कामोपमात पुनिमर्थ जन इल्हुक प्रभारिव (त)


यः पुत्राग्र (स-च) ये ग्रा न वे ते ह (तैह)


सव्वैरवि कोशवर्द्धन त -


रत्नात्रयः (याम) करित (म) (2) वर्षे रूद्र


सते (तै) र गतैः सु (शु) भता मेरे का नवति


अधिकैर वैसाख (खे) धवले द्वितीय दिवसे


देवान प्रतिष्ठा -


(पितान) वन्दते नत देवपाल तन्य माल्हु


सधान्वादयः पु (पू) नि शान्ति सुताश्च


नेमी भरतः श्री शांति सत्कु (म) थ्वारान (3)


दमड़ी सूत्र धारोतपन्नाहः (न्ना) शिला-श्री


सूत्र धरिन शान्ति (कु) निथु (थ्व अ) र नाम


(मा) नो ज्यन्तु धारिता जिनाः (4) देवपालसु


त इल्हुक गोष्ठी विशाल लल्लुकः (काह)


मौकाह हरिश्चन्द्रादिः गागास्व (सु) पुत्र


(ह) अल्लकः सम्वत् 1191 वैसाख सुदि 2 (मंगल दिने प्रतिष्ठिा करापित (:) -


इस अभिलेख में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसमें जैनधर्म की खण्डेलवाल जाति का वर्णन है। इस जाति से सम्बन्धित राजस्थान की धरती पर अब तक अवाप्त होने वाला यह प्रथम पाषाण अभिलेख के रूप में मान्य है। इसके अलावा इसमें है। तीन भौगोलिक स्थलों सूर्याश्रम, कोषावर्द्धन एवं मालवा का वर्णन है। इसमें सूर्याश्रम का पता नहीं चलता परन्तु कोषवर्द्धन वर्तमान का शेरगढ़ तथा मालवा से तात्पर्य वर्तमान मालवा से है। लेखक का मानना है कि इस लेख में यह बात भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि इसमें कोषवर्द्धन (शेरगढ़) को मालवा क्षेत्रान्तर्गत बताया है, जबकि इस हाड़ौती अंचल से मालवा के परमार युगीन जो अन्य लेख मिले है उनमें किसी में भी कोशवर्द्धन को मालवा में नहीं बताया गया है।


इस लेख का सारांश यह है कि इसमें महिल्ल नामक खण्डेलवाल वंशीय जैन व्यक्ति की पत्नि को सूर्याश्रमवासी दर्शाया है। महिल्ल के दो पुत्र श्रीपाल व गुणपाल ने आकर मालवा में वास किया। श्रीपाल के पुत्र का नाम देवपाल तथा गुणपाल के 9 पुत्र- गुणी, मर्थि, इल्हुक आदि ने रत्नात्रय (तीर्थंकर शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरिनाथ) की मूर्तियों का निर्माण करवा कर उनकी कोषवर्द्धन में स्थापना करवायी। देवपाल के पुत्रों माल्हु व सधान तथा गुणपाल के पुत्रों पुनि, नेमि, भरत, शान्ति ने मिलकर इन तीर्थंकरों की आराधना की। इन मूर्तियों का शिल्पी शिलाश्री था। उसके पिता का नाम दमड़ी था। इन मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा में देवपाल के पुत्रों इल्हुक, गोष्ठिन, विशाल, लल्लुक, मौका, हरिश्चन्द्र ने अनन्य सहयोग किया।


बारां जिलान्तर्गत काकूनी नामक एक पुरास्थल पर जैन धर्मावलम्बियों का बड़ा प्रभाव था। यहां जैनधर्म के कई पुरास्थल है। यह स्थल झालावाड़ जिले की सीमा से भी सटा हुआ है। यहां से प्राप्त एक जैन तीर्थंकर मूर्ति पर निम्नांकित लेख मिलता है।


सवंतु 1227 आषाढ़ वदि 2,


आचार्य श्री वृषभ (भे) सेनः॥


धर्कडान्वय साधु पोसद भार्या


भाणिक सुत


श्री डालू भार्या बाल्ही लघु भ्राताः


वील्हु भार्या


नायक पुत्र सीहड़ महि (जालू)


माधव महिपति प्रणमतिः।


उक्त लेख में वर्णित है कि आचार्य जैन वृषकसेन के आदेशानुसार धर्कट जाति के डालू और बिल्हु श्रेष्ठियों ने इस जैन तीर्थंकर मूर्ति की प्रतिष्ठा आषाढ़ बदी, 2 संवत 1227 (1170ई.) को करवायी।


वर्तमान हाड़ौती संभाग का झालावाड़ जिला मूलतः प्राचीन मालवा का अभिन्न अंग है। यह क्षेत्र आरम्भ से ही जैनधर्म का प्रभावी क्षेत्र रहा है। यहां 11वीं सदी से ही जैनधर्म की सुदीर्घ परम्परा के अनवरत दर्शन होते हैं। जिनका वर्णन यहां की अभिलेखीय परम्परा में निर्बाध गति से मिलता है।


झालावाड़ के निकट झालरापाटन नगरी में 11वीं सदी का एक प्राचीन और कलात्मक शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर है। इसमें मूल-नायक तीर्थकर शांतिनाथ की मूर्ति पर एक संख्याक लेख संवत् 1145 (1088 ई.) को झालावाड़ राज्य के पुरातत्त्वेत्ता पं. गोपाललाल व्यास ने पढ़ा था। इसमें संभावना प्रतीत होती है कि यह संख्याक लेख इस मूर्ति का प्रतिष्ठाकाल हो सकता है। कर्नल जेम्स टाड़ ने इसी मंदिर में एक पाषाण अभिलेख अपनी यात्रा के दौरान पढ़ा था, जिसमें ज्येष्ठ तृतीया संवत 1003 का अंकन है। टाड़ ने इसी लेख में इस यात्री के नाम का भी उल्लेख किया था। इस मंदिर में एक पाषाण स्तम्भ पर संवत् 1854(1797 ई.) का महत्वपूर्ण लेख है। इसका महत्व यह है कि संवत् 1854 में भट्टारक नरभूषण महाराज ग्वालियर से यहां चातुर्मास के हेतु आये थे। उन्होंने यहां के जैन समाज पर इस मंदिर की धूपदीप की व्यवस्था हेतु एक मणी अनाज और आधा पैसा धमार्दा कर रूप में देने का निश्चय किया था।


इस प्राचीन जैन मंदिर में तीर्थंकर मूर्तियां स्थापित है, जो मध्ययुगीन है। ये मूर्तियां जैनधर्म के मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण के भट्टारक सकलकीर्ति व उनके शिष्यों द्वारा प्रतिष्ठित है। इन मूर्तियों के नीचे बलात्कारगण का ईडर शाखा के दुर्लभ अभिलेख है, जिनका परिचय इस प्रकार है :


संवत् 1490 वर्षे माधवदी 12 गुरौ भट्टारक सकलकीर्ति हूमड़ दोशी मेधा श्रेष्ठी अर्चति।


संवत् 1492 वर्षे वैशाख वदी सोमें श्री मूलसंघे भट्टारक श्री पद्मनन्दि देवास्तपट्टे, भट्टारक श्री सकलकीर्ति हुमण जातीय.......


संवत् 1504 वर्षे फागुन सुदी 11श्री मूलसंघे भटारक श्री सकलकीर्ति देवास्तपट्टे भट्टारक श्री भुवनकीर्ति देवा हुमड़ जातीय श्रेष्ठि खेता भार्या लाख तयो पुत्रा.......


संवत् 1535 पोषवदी 13 बुधे श्री श्री मूलसंघे भटाक श्री सकलकीर्ति, भट्टारक श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हूमड़ श्रेष्ठि पद्माभार्या भाऊ सुत आसा भ. कडू सुत्कान्हा भा. कुंदेरी भ्रातधना भा. वहहनु एते चतुविशतिका नित्य प्रणमंति।


___ यहां प्रतिष्ठित एक तीर्थंकर पाश्रवनाथ मूर्ति पर 1620 वैशाखसुदी 9 बुध श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये भ. श्री पद्मनन्दि देवास्तपट्टे सकलकीर्ति देवास्तपट्टे सुमतिकीर्ति गुरूपदेशायत्, हूबड़ जातीय मंदिर गौत्रे संघवी देवा भा. देवाभदे त्तसुत संघवी भार्या परवत् भार्या परमलदे त्भ्रातृ सं. हीरा भा. कोडमदे त्तभ्रातृ सं. हरष भा. करमादे सुत लहुआ भा. मिन्ना, भ्रातृ लाडण भा. ललितादे सुतं थापर सं. जेमल भा जेताही भ्रा. डूंगर भा. धानदे भ्रा. जगमा सं. हीआ, बलादे एतै, सह संघवी वीवादो सागवाड़ा वासूव नित्यं प्रणमंति का अंकन है।


(ज्ञातव्य है कि यह तीर्थंकर मूर्ति सागवाड़ा जिला भीलवाड़ा में प्रतिष्ठित हुई थी और विवेच्य मंदिर में अभी प्रतिष्ठित है) यहां के एक लेख में किसी दर्शनार्थी के आगमन की तिथि का लेख “ज्येष्ठ 3, संवत् 1103" है।


झालरापाटन में ही जैनधर्म की एक निषेधिका (मृत्युस्थल) है। इसे सात सलाका की पहाड़ी कहते है। यहां के एक पाषाण स्तम्भ पर संवत् 1109 के अभिलेख में श्रेष्ठी पापा की मृत्यु का उल्लेख पठन में आता है। चूंकि उक्त जैन मंदिर के निमार्ता भी श्रेष्ठी पापा ही थे, अतः संभव है कि यह स्तम्भ भी उसी व्यक्ति का ही हो। यहां के एक अन्य स्तम्भ पर संवत् 1113 के लेख में श्रेष्ठी साहिल की मृत्यु का नामोल्लेख है। संभवत् श्रेष्ठी पापा और श्रेष्ठी साहिल के मध्य पारिवारिक सम्बन्ध हो। 


यहां एक निषेधिका पर संवत् 1066 का अभिलेख है, जिसमें जैनाचार्य श्री भावदेव के शिष्य श्रीमंतदेव के स्वर्गलोक पधारने का उल्लेख मिलता है। इसमें उक्त जैनाचार्य का चित्र भी ऊकरा हुआ है। इसमें आचार्य का मुख अध्ययन स्थिति में है। उनके समक्ष एक ग्रन्थ खुली अवस्था में ठूणी पर रखा है, जो पढ़ने हेतु डेस्क का काम देता है। इसके निकट ही एक चबूतरे पर देवेन्द्र आचार्य का एक लेख है जिसमें उनका समय संवत् 1180 दिया हुआ है। एक अन्य स्तम्भ लेख में कुमुद चन्द्र आम्नाय के भट्टारक कुमार सेन का नाम दिया है, जिनका स्वर्गवास 1289 में मूल नक्षत्र में गुरुवार को हुआ था। यहां का एक अन्य अभिलेख संवत् 1009 का है। इसमें जैनाचार्य नेमिदेवाचार्य और बलदेवाचार्य का उल्लेख है। इसी स्तम्भ पर संवत् 1242 के अभिलेख में मूलसंघ के उल्लेख पठन में आते है।


झालरापाटन के चन्दाप्रभू जैन मंदिर में 10वें तीर्थंकर शीतलनाथ स्वामी की एक मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति पर एक अभिलेख है, जो इस प्रकार है :


संवत् 1552 वर्षे जेठ बदी 8 शनिवासरे री काण्ठा संघे बागडगच्छे (नंदी तपगच्छे) विद्यागच्छे भ. विमलसेन स्तपट्टे भ. श्री विजयसेन देवास्तपट्टे आचार्य श्री विशालकीर्ति सहित हुमड़ जाति परमेशवर गौत्रे सा. गोगा भा. वामनदेपुत्र पंच, सा. कान्हा, सा. करमसी, भा. गारी कनकदे साह कालू भा. जीरी, साधेधर भा आदे. सा. गोगा भा गांगादे, तेनेद शीतलनाथस्य बिम्बं निमाप्य प्रतिष्ठाकर पिता पुत्री 2, बाई माही, बाई पुतली।


झालावाड़ और झालरापाटन के मध्य स्थित है गिन्दौर गांव। यहां जैनधर्म की नसियां है। इसमें बायी ओर की बेदी में हल्के लालवर्ण की तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस पर इनके प्रतिष्ठाकाल का एक लेख संवत् 1226 ज्येष्ठ सुदी 10 बुधवार का अंकित है। इसी प्रकार उक्त मूर्ति के निकट की अन्य तीर्थकर मूर्तियों पर संवत् 1545, संवत् 1665 तथा संवत् 1669 के अभिलेख है, जो इनके प्रतिष्ठाकाल के है। ज्ञातव्य कि झालरापाटन जैनधर्म का मध्ययुग में बड़ा केन्द्र रहा है। यहां की नसियां के बाहर की तिबारी पर एक लेख का अंकन निम्न प्रकार है। "श्री संतनाथ जी महाराज मिति जेठ बदी 3 सम्वत 1910 (1853 ई.) का उसतो देवराम बेटा गणेसराम बांचे जासे राम राम बचंजो।"


झालावाड़ मुख्यालय से 35 किलोमीटर दूर खानपुर कस्बे में चांदखेड़ी में स्थित जैन दिगम्बर आदिनाथ का विख्यात मंदिर है। यहां का एक जैन अभिलेख महत्व का है, जो इस प्रकार है :


संवत् 1746 वर्षे मप्रमांगल्य प्रदमासोत्तम माघ मासे शुक्ले पक्षे.....तिथो सोमवासरे उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रे....खीचीवाड़ देश....नगर चांदखेड़ी बादशाह श्री अवरंगशहि राज्य प्रवर्तमान त्तसामन्त चैहाण वंश हाड़ा महाराजाधिकराज महाराज श्री माधोसिंहजी त्तपुत्र महाराज कुमार श्री रामसिंह जी तथा महाराजाधिराज श्री किशोरसिंह जी राज्य प्रवर्तमाने बघेरवाल साह श्री भोपतिःस्तद्भार्या भक्तादे त्तपुत्रौ द्वौ प्रथम पुत्र साह नानू तद्भार्या नौलादे द्वितीय पुत्र श्री जिनसाह.....भक्ति साधुजन दान वितरण सफलीकृत निज मुनष्य जन्मा साह श्री नेतसी तद्भार्या नारंगदे त्तपुत्र संगहीजी श्री कृष्णदास तद्भार्या द्वे प्रथम भार्या कलावती दे द्वितीय भार्या लाड़ी प्रथम भायार्याः पुत्र चिरंजीव श्री टोडरमल एत्त सर्व परिवार श्री जिनेन्द्र प्रतिष्ठा चतुःप्रकार संघ भार धुरंधर तथा विनय चातुर्यवदान्य गुणाल्योकृत कल्प पादपः संगही जी श्रीकृष्णदास। जी काश्यस्तने समहोत्साह श्री जिनेन्द्रबिम्ब प्रतिष्ठालिखित आचार्य कनकमणि।


उक्त लेख चांदखेड़ी जैन मंदिर परिसर में स्थापित है। इस लेख में संस्कृत भाषा का प्रभाव परिलक्षित होने के साथ ही खड़ी बोली भी स्पष्ट दृष्टव्य होती है। इस लेख में यह वर्णित है कि खीचीवाड़ा क्षेत्र में स्थित चांदखेड़ी नगर में माघ मास के शुक्ल पक्ष में सोमवार को संवत् 1746 (1689 ई.) में जब भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब का शासन था और इस क्षेत्र में हाड़ा राजपूत वंश के राजा किशोर सिंह का आधिपत्य था। इस समय जैन बघेरवाल जाति के भोपतशाह की भार्या (पत्नि) भक्तादे व पुत्र शाह नानू तथा पुत्र जिनशाह ने अन्य भक्तों की सहायता से भगवान जिनेन्द्र की मूर्ति की प्रतिष्ठा की। ज्ञातव्य कि इस लेख के रचनाकार जैनाचार्य कनकमणि थे।


झालावाड़ जिलान्तर्गत एक प्राचीन नगर गंगधार है। इस नगर की प्राचीनता के आधार ईसा की पांचवी सदी से रहा हैमालवा की उपराजधानी के रूप में चर्चित रहे इस नगर में मध्ययुग में जैनधर्म का बड़ा प्रभाव रहा है। इस नगर के मध्य किले की भैरूपोल के द्वार के निकट स्थित एक जैन मंदिर है। इसमें पीतल धातु की जैन तीर्थंकर मूर्ति पर एक लेख है :


संवत् 1512 वर्षे फागुण सुदी 4 शनो 3, वषे भंभरी गोत्रे भंगजा भार्या संसार दे


नामी पुत्र बीरम बेलास्या देया पुण्यार्थ


अभिनन्दनम करितं संदेर गच्छे प्रतिष्ठत


श्री शान्ति सुरभि ।। श्री ।।


उक्त जैन अभिलेख संवत् 1572 (1515 ई.) की फागुण सुदी चतुर्थी, शनिवार का है जिसमें यह हवाला है कि भण्डारी गौत्र के किसी नृपति की पत्नि संसारदेवी (रानी) के पुत्र (राजकुमार) बीरम ने जनपुण्यार्थ इस जैन तीर्थंकर मूर्ति की प्रतिष्ठा खरतरगच्छ से सम्बद्ध भट्टारक शांति सुरभी द्वारा करवायी थी। इसी क्रम में एक अन्य जैन अभिलेख संवत् 1524 का है, जिसका पाठ निम्न प्रकार है:


संवत् 1524 वर्षे फागुण सुदि दिने, श्रीमाल जातिये ठाकुरा गौत्रे। साजयता पु.सा. भांडण सुश्वाव केन पुत्र झाझण दिस हितं श्री श्रेयसं बिंब।। कारितं प्रतिष्ठित श्री खरतर गच्छे श्री श्री जिन चन्द्र सुरभि मंडप दुर्ग।।


उक्त लेख फागुण सुदी सप्तमी संवत् 1524 का है, उक्त तिथि को श्रीमाल जाति ठाकुर गौत्र के जैन श्रावक मंडप के पुत्र जयंता व झाझण ने तीर्थंकर श्री श्रेयान्सनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के मण्डप दुर्ग के भट्टारक जिन चन्द्र सुरभि द्वारा करवाने का वर्णन है। उपरोक्त मंदिर में 3 आसनस्थ व एक स्थानक जैन तीर्थंकर मूर्तियां है। इनमें 2 मूर्तियों पर निम्नांकित अभिलेख है:


(1) संवत् 1330 ज्येष्ठ बदि 5 शनौ।


प्राग्वाट जातीय कुंभा सुत कडुआ दे दा।।


उक्त मूर्ति की प्रतिष्ठा ज्येष्ठ मास की पंचमी सुदी को संवत् 1330 (1273 ई.)में प्राग्वाट जाति के कुंभा नामक व्यक्ति के पुत्र कड़वा द्वारा करवायी थी।


संवत् 1352 वर्षे माह सुदी 6 गुरौ, पाटन्वये सा आहड़ के पुत्र देद्दा........।


इस मूर्ति की प्रतिष्ठा माघ सुदी 6 बृहस्पतिवार संवत् 1352 (1296 ई.) को आहड़ के पुत्र देदा द्वारा करवाई गई थी। इस प्रकार हाड़ौती क्षेत्र में जैनधर्म के छठी से 20वीं सदी तक के प्रभाव व धर्म की अबाध गति व उन्नति का पता चलता है।