हमारी धरोहर - शिलालेख

आधुनिक युग में कोई भी जानकारी प्राप्त करने के अनेकों तरीके हैं जैसे गूगल सर्च इन्जन द्वारा, विभिन्न पुस्तकालयों में मौजूद पुस्तकों के माध्यम से एवं अपने बड़े बुजुर्गों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि आज हमारे पास सम्पन्न भाषा, लिपि एवं कागज की उपलब्धता है साथ ही डिजिटल इन्डिया मिशन के अन्तर्गत कम्प्यूटर द्वारा देश-विदेश की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। प्राचीन काल में जब इन सभी सुविधाओं का नितान्त अभाव था, तब विभिन्न जानकारियों को प्रेषित करने के लिए विभिन्न चिन्हों का प्रयोग, रंगों का प्रयोग, वृक्ष की छाल एवं पत्तों के माध्यम से किया जाता था।


संसार के प्रत्येक देश का अपना सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं भौगोलिक इतिहास होता है, जिसमें उनके सामायिक उन्नयन, पतन, विकास एवं विनाश का अंकन होता है। यह इतिहास पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित होता रहता है जिसके फलस्वरूप आने वाली पीढ़ी अपने पिछले इतिहास को जानकर समझ सकती है और उनकी गल्तियों से सीख भी ले सकती है, जिससे भविष्य में उन बिन्दुओं पर सावधान रहा जा सकता है।



आधुनिक युग में कोई भी जानकारी प्राप्त करने के अनेकों तरीके हैं जैसे गूगल सर्च इन्जन द्वारा, विभिन्न पुस्तकालयों में मौजूद पुस्तकों के माध्यम से एवं अपने बड़े बुजुर्गों से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि आज हमारे पास सम्पन्न भाषा, लिपि एवं कागज की उपलब्धता है साथ ही डिजिटल इन्डिया मिशन के अन्तर्गत कम्प्यूटर द्वारा देश-विदेश की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। प्राचीन काल में जब इन सभी सुविधाओं का नितान्त अभाव था, तब विभिन्न जानकारियों को प्रेषित करने के लिए विभिन्न चिन्हों का प्रयोग, रंगों का प्रयोग, वृक्ष की छाल एवं पत्तों के माध्यम से किया जाता था।


आदिम युग में मनुष्य ने अपने रहने की जगह, पत्थरों की गुफा में ही उसकी दीवारों पर अपने सन्देशों एवं आदेशों को संकेतों के माध्यम से अंकित किया जिन्हें केवल वे ही समझ सकते थे। जिन्हें गुहालेख कहा जाता है। ज्यों-ज्यों भाषा का विकास होता गया संकेतों का स्थान भाषा ने ले लिया यद्यपि वह आज के समय में अपठनीय है मगर उस समय वही एक मात्र माध्यम था अपने विचारों के प्रदर्शन हेतु।


भारत में प्रस्तर का प्रयोग अभिलेखन हेतु कई प्रकार से हुआ जैसे गुफा की दीवारों पर, पत्थर की चट्टानों पर, तख्तियों पर मन्दिर की दीवारों एवं स्तम्भों पर, साथ ही फर्श पर भी अभिलेखन को कार्यान्वित किया जाता था। पत्थर के अलावा अभिलेखन संगमरमर पटल का प्रयोग भी किया जाता था। ज्यों-ज्यों भारत प्रगति के मार्ग पर बढ़ता गया अभिलेखन हेतु ईंट का प्रयोग, स्वर्ण धातु, रजत धातु, ताम्रपत्र, पीतल, कांसा, लोहा एवं जस्ता का प्रयोग भी किया जाने लगा। कुछ देशों में तो इसे काष्ठ पटल पर भी उकेरा जाने लगा यद्यपि ये अस्थाई होते थे, समय के साथ साथ ये अस्पष्ट एवं अपठनीय होते जाते थे।


अभिलेखों को चिरस्थाई बनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ विधि है "शिलालेख" अर्थात पत्थर पर अंकन। शिलालेख को मूर्त रूप देने के लिए सर्वप्रथम अभिलेख तैयार करने हेतु व्यवसायिक कारीगर होते थे जो हस्तलेख तैयार करते थे जिन्हें लेखक, लिपिकार, दिविर, कायस्थ आदि के नाम से जाना जाता था। उक्त आलेखों को पत्थर पर अक्षर एवं चिन्हों के माध्यम से रूखानी, छेनी, हथौड़ी, लौह शलाका का प्रयोग कर उकेरा जाता था। प्रारम्भ में शिलालेख बहुत सुन्दर नही होते थे, मगर धीरे-धीरे स्थायित्व एवं आकर्षण की दृष्टि से सुन्दर और अलंकृत अक्षर लिखे जाने लगे। साथ ही लेखन की अन्य शैलियां भी विकसित होती चली गयीं।


शासकों द्वारा अपने सन्देशों एवं आदेशों का उत्कीर्णन इस प्रकार करवाया जाता था जिससे आम-जन उन्हें देखकर पढ़ सकें और उनका पालन भी कर सकें। धार्मिक एवं नैतिक जीवन में दान के महत्व को ध्यान में रखते हुए इन शिलालेखों द्वारा दान हेतु प्रेरित किया जाता था, साथ ही स्थाई दान को शिलालेखों द्वारा अंकन भी किया जाता था।


इतिहास लिखने के लिए प्राचीन अभिलेखों का स्थाई एवं स्पष्ट होना आवश्यक है। कुछ अभिलेख ऐसे भी हैं जो मिट गये या नष्ट हो गये मगर कुछ ऐसे भी हैं जो आज भी सुरक्षित हैं। शिलालेख अभिलेखों का स्थाई बनाने का सर्वप्रिय माध्यम पुराने समय में भी था और आज के समय में भी इसकी उपयोगिता है। कुछ प्राचीन अभिलेख पुस्तकों, प्रतीक चिन्हों के माध्यम से पुस्तकालय एवं संग्रहालय में भी प्राप्त हो जाते हैं ये इन जगहों पर संरक्षित होने के साथ-साथ सर्वसुलभ भी होते हैं। समय के साथ-साथ इनकी उपयोगिता बढ़ती जाती है और ये मूल्यवान होते जाते हैं। इनके माध्यम से किसी शासक का नाम उसकी कार्यप्रणाली, सीमा विस्तार एवं शासन का समय की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।


भारतीय इतिहास में सबसे शक्तिशाली सम्राटों के संरक्षण में बौद्ध धर्म का प्रचारप्रसार के प्रमाण शिलालेखों के माध्यम से प्राप्त होता है। इन शिलालेखों में मूल रूप से राज्य को चलाने में सहायक व्यवहारिक निर्देश जैसे सिंचाई योजना, शान्तिपूर्ण नैतिक व्यवहार की व्याख्या आदि का अंकन पाया जाता है।


भारत में सर्वप्रथम मौर्य वंश के प्रसिद्ध शासक सम्राट अशोक द्वारा शिलालेख अस्तित्व में आये थे। अशोक के शिलालेख की खोज सन् 1750 ई. में टी. फेथेलर ने की थी उन्होंने कुल 14 शिलालेख की जानकारी दी मगर वे उन शिलालेखों पर अंकित संदेशों को पढ़ने में असमर्थ रहे, उन्हें पढ़ने का श्रेय 1832 ई. में जेम्स प्रीसेप का प्राप्त हुआ।


सम्राट अशोक के प्रमुख


शिलालेख एवं उन पर अंकित संदेश


प्रथम शिलालेख- इस लेख को गिरनार संस्करण के नाम से जाना जाता है। इसमें किसी भी धार्मिक अथवा सामाजिक अनुष्ठान के अवसर पर पशु बलि पूर्णतः प्रतिबन्धित किया गया है।


द्वितीय शिलालेख- इस शिलालेख पर अशोक ने मानव एवं सभी जीव जन्तुओं के कल्याण का संदेश अंकित करवाया है।


तृतीय शिलालेख- इस शिलालेख से ज्ञात होता है कि उनके राज्य में हर वर्ग के राज्य कर्मियों को धर्म प्रचार हेतु भेजा जाता था जिसमें बचत, धार्मिक नियम एवं अल्पव्यय को धम्म का अंग बताया गया है।


चतुर्थ शिलालेख- इस शिलालेख में अशोक ने भेरी घोष (विशेष प्रकार का स्वर यंत्र) को त्याग कर धम्म घोष की घोषणा को आवश्यक बताया।


पंचम शिलालेख- इसमें जन सामान्य को धर्माचरण की बातें बताने के लिए धर्म महामात्यों को नियुक्त करने का निर्देश दिया गया है।


षष्टम् शिलालेख- इसमें अशोक द्वारा आत्म नियंत्रण की शिक्षा दी गयी है एवं सर्व कल्याण हेतु राजा के कर्तव्यों को अंकित किया गया है।


सप्तम् शिलालेख- इसमें आत्मसंयम, शुद्ध भाव, विभिन्न धर्मों का आदर एवं तीर्थों का भ्रमण सभी के लिए आवश्यक बताया गया है।


अष्टम् शिलालेख- इस शिलालेख मेंरासरंग से परिपूर्ण यात्रा के स्थान पर धर्म यात्रा पर सम्राट का संकल्प अंकित है।


नवम् शिलालेख- इसमें अशोक ने निरर्थक मंगल कार्यों के स्थान पर समाज में धर्म मंगल की बातों का प्रश्रय दिया गया है।


दशम् शिलालेख- इसमें अशोक विभिन्न सम्प्रदायों के बीच व्याप्त असंतोष से चिन्ता को व्यक्त किया गया है तथा ब्राम्हणों और श्रमणों के मध्य समभाव रखने की शिक्षा दी गयी है साथ ही राजा व उच्च अधिकारी द्वारा प्रजा का हित सर्वोपरि रखने की बात भी कही गयी है


एकादश शिलालेख- इसमें धम्म की व्याख्या की गयी है साथ ही धर्म के वरदान को सर्वोत्तम बताया गया है।


द्वादस शिलालेख- इसमें स्त्री-पुरुष को समानता महत्ता देने के उद्देश्य से स्त्री महामत्रों की नियुक्ति की बात कही गयी एवं सभी प्रकार के विचारों को सम्मान देने की बात कही गयी है।


तृयोदश शिलालेख- इसमें शासन के 8वें वर्ष कलिंग विजय, कलिंग युद्ध, अशोक का हृदय परिवर्तन, पड़ोसी राजाओं एवं उनके मौर्य साम्राज्य के साथ राजनैतिक सम्बन्धों का उल्लेख पाया जाता है।


चतुर्दश शिलालेख- इस शिलालेख में प्रत्येक मनुष्य को धार्मिक जीवन जीने की प्रेरणा दी गयी है एवं शेष 13 शिलालेखों में जो कि त्रुटि हो गयी थी उसे इसमें सुधारा गया है।


वर्तमान में अभिलेखों के संग्रह एवं संरक्षण के अनेकों साधन होते हुए भी शिलालेख की उपयोगिता आज भी कम नहीं हुई है। आज भी अपने नाम के साथ अपने जनोपयोगी कार्यों को जन-जन तक पहुँचाने का यह एक सहज एवं स्थाई साधन है। किसी भी धार्मिक स्थल अथवा सामाजिक, राजनैतिक संस्था की पूरी जानकारी वहाँ पर मौजूद शिलालेख अथवा शिलापट्टिका द्वारा प्राप्त की जा सकती है।


संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भारत में शिलालेख आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं महत्वपूर्ण है जितने कि प्राचीन समय में रहा करते थे। समय के साथ-साथ उनमें प्रयोग किया गया शिलापट, लेखन सामग्री परिवर्तित होती गयी जिससे वे और भी आकर्षक, सुपठनीय एवं महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने वाले सरल एवं सहज साधन बन गये हैं। शिलालेख के रूप में अभिलेख हमारे देश की बहुमूल्य धरोहर है।