पत्थरो पर समय की गाथा

जब शिलालेख विषय पर लिखने के लिए दिया तो पहले तो समझ नहीं सका कि इस विषय को मुझे क्यों दिया गया लेकिन चिंतन ने विषय के रिश्ता जोड़ दिया और डूबने को मजबूर भी कर दिया। यदि शिलाओं के आलेख न रहे होते तो यकीनन अपने अतीत को पढ़ना और जानना बहुत कठिन होता। इतिहासकारों की भाषा में इस विषय को समझें तो किसी पत्थर या चट्टान पर खोदी गई लिखित रचना को शिलालेख कहा जाता है।


सृष्टि की यात्रा। समय की कथा। पत्थरों की निशानी। समय शिलाओं पर दिखता है। इन शिलाओं में सदियों की धड़कन होती है। इसी धड़कन में सभ्यता की अनगिनत निशानियाँ उच्छवास अंकन के रूप में हमें भी मिल जाती हैं। चित्रकार के लिए यह कला है। साहित्यकार के लिए साहित्य के अभिलेख और इतिहाकार इन्हीं पत्थरों में तलाश लेते हैं अपनी, सभ्यता संस्कृति, भाषा और संवाद की समिधाएं। ये शिलालेख ही हैं जिनमे हम प्राचीन होकर आधुनिक होते दिखते हैं और सभ्यता की आगे वाली यात्रा के पिछले मुकाम की निशानियां पढ़ते हुए बीतने लगते हैं। ये पत्थरों की पढ़ाई बहुत गहरी है। तभी तो प्रसिद्ध गीतकार शम्भूनाथ सिंह को लिखना पड़ा होगा


समय की शिला पर मधुर चित्र कितने


किसी ने बनाए, किसी ने मिटाए।


किसी ने लिखी आँसओं से कहानी


किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी


इसी में गए बीत दिन ज़िन्दगी के


गई घुल जवानी, गई मिट निशानी।


विकल सिन्धु के साध के मेघ कितने


धरा ने उठाए, गगन ने गिराए।


जब शिलालेख विषय पर लिखने के लिए दिया तो पहले तो समझ नहीं सका कि इस विषय को मुझे क्यों दिया गया लेकिन चिंतन ने विषय के रिश्ता जोड़ दिया और डूबने को मजबूर भी कर दिया। यदि शिलाओं के आलेख न रहे होते तो यकीनन अपने अतीत को पढ़ना और जानना बहुत कठिन होता। इतिहासकारों की भाषा में इस विषय को समझें तो किसी पत्थर या चट्टान पर खोदी गई लिखित रचना को शिलालेख कहा जाता है। शिलालेख का अर्थ होता है पत्थर पर लिखा हुआ (पेट्रोग्राफ)। पत्थरों पर या गुफाओं की पत्थरीली दीवारों पर जब कोई लिखित रचना की जाती है तो इसे शिलालेख कहा जाता है तथा पत्थरों पर लिखने की कला शिलालेखन कहलाती है। शिला का अर्थ होता है पत्थर या चट्टानय और जब लेख शब्द इस से जुड़ जाता है तो शिलालेख बनता है। इतिहास लेखन तीन तरह के स्रोत जैसे साहित्यिक साक्ष्य, विदेशी यात्रियों का विवरण और पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य के आधार पर होता है। पुरानी जगहों के उत्खनन, जीवाश्म के अवशेष, हड्डियों, उपकरण, सिक्के, स्मारकों, अतीत की शिलालेखों के अध्ययन के साथ-साथ विभिन्न लिखित दस्तावेजों, धार्मिक ग्रंथों, पांडुलिपियों का अध्ययन आदि से इतिहासकारों को भूतकाल में घटी घटनाओ को समझने और अध्ययन करने में सहायता मिलती है। शिलालेख की विधा ऐसी है कि प्राचीन काल से इसका उपयोग हो रहा है। शासक इसके द्वारा अपने आदेशो को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे, ताकि लोग उन्हे देख सकें एवं पढ़ सकें और पालन कर सकें। आधुनिक युग मे भी इसका उपयोग हो रहा है। यदि अत्यंत प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के अभिलेखों का वर्गीकरण किया जाए तो उनके प्रकार इस भाँति पाए जाते हैं:


(1) व्यापारिक तथा व्यावहारिक,


(2) आभिचारिक (जादू टोना से संबद्ध),


(3) धार्मिक और कर्मकांडीय,


(4) उपदेशात्मक अथवा नैतिक,


(5) समर्पण तथा चढ़ावा संबंधी,


(6) दान संबंधी,


(7) प्रशासकीय,


(8) प्रशस्तिपरक,


(9) स्मारक तथा


(10) साहित्यिक।


अशोक द्वारा उत्कीर्ण करवाए गए अभिलेख स्तम्भ लेख व शिलालेख के रूप में स्तंभों, चट्टानों व गुफाओं पर खुदवाए गए थे। अशोक के 14 वृहत शिलालेख कालसी, शाहबाजगढ़ी, मानसेहरा, सोपारा, धौली, जोगड़, गिरनार व येरागुडी नामक स्थानों से प्राप्त हुए हैं। धौली और जौगड के शिलालेखों पर 11वें, 12वें और 13वें शिलालेख उत्कीर्ण नहीं किये गये हैं। उनके स्थान पर दो अन्य लेख हैं जिसे पृथक कलिंग प्रज्ञापन कहा गया है। इनमे कलिंग राज्य के प्रति अशोक की शासन नीति के विषय में जानकारी मिलती है। इनका निर्माण शासकों द्वारा अपनी विजय के उपलक्ष्य में करवाया जाता था। कई अभिलेखों में शासक अपने आदेशों को उत्कीर्ण करवाता था, ताकि लोग उसे पढ़कर उसका अनुसरण कर सकें। सम्राट अशोक के स्तम्भ लेख प्राकृत भाषा में है। यह लौरियाअरराज, लौरियानन्दनगढ़, टोपरादिल्ली, मेरठ-दिल्ली, इलाहाबाद तथा रामपूरवा में स्थित है। प्रयागराज यानी इलाहबाद स्तम्भ लेख पहले कौशाम्बी में था। अकबार के शासनकाल में जहाँगीर द्वारा इसे इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) के किले में रखा गया। कौशाम्बी स्तम्भलेख में स्त्री महामात्र, अशोक की रानी कारूवाकी तथा पुत्र तीवर का उल्लेख है। इसे रानी का अभिलेख भी कहा जाता है। इन अभिलेखों में अशोक का देवानाम्प्रिय कहकर संबोधित किया गया है। अशोक के शिलालेखों से जानकारी मिलती है कि उसने बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए भू-मध्य सागर के क्षेत्र तक प्रयास किये थे।



शिलालेखों की भाषा और उनका अध्ययन


भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में मिलाने वाले शिलालेखों को भाषा को पढ़ना अपने आप में एक कठिन कार्य रहा है। इन आलेखों को पढ़ने के लिए इतिहासवेत्ताओं ने पुरालेख विद्या को बड़ी मेहनत से विकसित किया है। इसी के आधार पर अब दुनिया में शिलालेखों को पढ़ा पाने की क्षमता विकसित की गयी है और आसानी से अपने अतीत का अध्ययन हम कर पा रहे हैं। आधुनिक भारत में पुरालेखविद्या का प्रारम्भ अशोक के लेखों के अध्ययन से ही प्रारम्भ हुआ। अशोक के अनेक लेख चट्टानों, स्तम्भों आदि पर लिखे हुए प्राप्त हुए थे परन्तु काफी समय तक उन लेखों का अध्ययन न हो सका क्योंकि वे लेख ब्राह्मी लिपि में लिखे हुए हैं और ब्राह्मी लिपि का ज्ञाता वर्तमान भारत में कोई नहीं था। आज के भारत की सारी लिपियाँ ब्राहमी से व्युत्पन्न होने पर भी हमारे देश के विद्वान् सदियों पहले प्राचीन ब्राह्मी को भूल चुके थे। दिल्ली के सुलतान फीरोजशाह तुगलक ने 1356 ई. में टोपरा व मेरठ के अशोक-स्तंभ दिल्ली में मंगवाकर खड़े करवाए थे। इन स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों को पढ़ने के लिए फीरोज तुगलक ने विद्वानों को आमंत्रित किया थाए किंतु उस समय एक भी ऐसा विद्वान नहीं मिला जो अशोक के इन ब्राहमी लेखों को पढ़ सके। इन स्तंभों पर क्या लिखा हुआ है, यह जानने के लिए अकबर भी बड़ा उत्सुक था, किंतु उस समय भी ऐसा कोई नहीं मिला जो इन लेखों को पढ़ सके। इससे स्पष्ट होता है कि पुरानी ब्राहमी लिपि का ज्ञान भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना के पहले ही लुप्त हो गया था। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजों के पैर भारत में जम गए, तो उन्होंने भारत की प्राचीन संस्कृति के अध्ययन की ओर भी कुछ ध्यान दिया।


प्राचीन भारतीय इतिहास के अधिकृत पश्चिमी विद्वान ए एल बाशम लिखते हैं कि 1816 ईसवी में बवेरिया निवासी फ्रेंच बोप ने विलियम जोन्स के प्रतिपादित संकेतों के आधार पर संस्कृत तथा यूरोप की प्राच्य भाषाओं को एक पूर्वजता की प्रयोगात्मक रूप में पुनः स्थापना की। यहीं से पश्चिम के तुलनात्मक भाषा विज्ञान की शुरूआत हुई। 1821 में फ्रेंच सोसाइटी एसियाटिक और उसके दो साल बाद लंदन में रॉयल एसियाटिक सोसाइटी बनी। इसी समय प्राचीन भारतीय संस्कृति के अध्ययन का कार्य शुरू हुआ। सर विलियम जोन्स (1746-94 ई.) के प्रयास से 'एशिया के इतिहास, आदि के अनुशीलन के लिए 1784 ई. में कलकता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना हुई। तब से यूरोप के कई विद्वान भारतीय पुरातत्व के अनुशीलन में जुट गए और पुरालेखों की खोज तथा उनके अध्ययन का काम भी शुरू हुआविलियम जोन्स के बाद चार्ल्स विल्किन्स पहले विदेशी विद्वान हैं जिन्होंने संस्कृत का गहन अध्ययन किया था। विल्किन्स को दसवीं सदी के आसपास के कुछ लेखों को पढ़ने में सफलता मिली और उन्होंने गुप्तकाल के लेखों की लगभग आधी वर्णमाला को भी पहचान लिया। अशोक के अभिलेख करीब छह सौ साल अधिक पुराने हैं, इसलिए उन्हके आसानी से पढ़ पाना संभव नहीं था। आरंभ में यूरोप के पुरालिपिविदों की कल्पना थी कि अशोक के लेखों की भाषा संस्कृत है। इसलिए भी अशोक की ब्राहमी लिपि का उद्घाटन होने में कुछ देरी हुई।



अंत में जेम्स प्रिन्सेप (1799-1840 ई.) ने ब्राहमी लिपि की वर्णमाला का उद्घाटन किया। प्रिन्सेप कलकत्ता की टकसाल के अधिकारी थे और एशियाटिक सोसायटी के सेक्रेटरी भी। उन्होंने गुप्त लिपि की वर्णमाला को पढ़ने में भी सहयोग दिया थ। अब वे अधिक पुराने लेखों को पढ़ने में जुट गए। उन्होंने कई स्थानों के शिलालेखों के छापे मँगवाए और अक्षरों को मिला-मिलाकर इनका अध्ययन करते रहे। अंत में 1837 ई. में उन्होंने साँची के कुछ दानलेखों में 'दान' शब्द के अक्षरों को पहचाना और फिर उन्होंने शीघ्र ही ब्राहमी के शेष अक्षरों को भी पहचान लिया। इस प्रकार जेम्स प्रिन्सेप ने ब्राहमी लिपि की लगभग पूरी वर्णमाला का उद्घाटन किया। इस महान खोज के बाद भारतीय इतिहास व संस्कृति के अध्ययन का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। प्रिन्सेप के बाद देश.विदेश के अनेकानेक विद्वानों ने पुरालेखों का अध्ययन शुरू कर दिया। तब से ही भारत के लोगों को अपने देश की प्राचीन संस्कृति के बारे में यथार्थ जानकारी मिलने लगी। आज हम अशोक की ब्राहमी लिपि तथा इस लिपि से विकसित लिपियों में लिखे गए सारे लेखों को पढ़ सकते हैं। सम्राट अशोक के समय के जो प्रमाण अभी तक प्राप्त हुए हैं उनको प्रकार रखा गया है


शिलालेख-1


इसमें पशु बलि की निंदा की गई। तथा समारोहों पर पाबंदी की बात कही गयी है। इस आदेश के बाद भी राजकीय पाकशाला में सैंकडों पशुओं के स्थान पर 2 मोर, 1 मृग मारा जाता है। (सिमित पशु हत्या)



शिलालेख-2


देवानांपिय ने मानवों एवं पशुओं के कल्याम से संबंधित अनेक कल्याणकारी कार्य जैसे- सङक निर्माण, कुआ निर्माण, सङक किनारे छायादार वृक्ष स्थापित करना, चिकित्सालय की व्यवस्ता, समाज कल्याण, मनुष्य व पशु चिकित्सा। न केवल अपने साम्राज्य बल्कि दक्षिण के पडौसी राज्यों (चोल, पांड्य, केरल पुत्त, सतियपुत्त) तथा पश्चिमी पडौसी राज्यों (सीरीया के शासक एण्टियोकस एवं उसके पडौसी राज्य) में भी उपलब्ध करवाई।


शिलालेख-3


अशोक के तीसरे शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसके राज्य में प्रादेशिक, राजक, युक्तों को हर 5 वें वर्ष धर्म प्रचार हेतु भेजा जाता था जिसे अनुसन्धान कहाजाता था। इसमें बचत, धार्मिक नियम और अल्प व्यय को धम्म का अंग बताया है। (प्रशासन की जानकारी) 


शिलालेख-5


10 TONFAITOY अशोक ने लोगों को धम्म में प्रवृत्त करने और धम्म में प्रवृत्त लोगों के कल्याण के लिये शासन के 13 वें वर्ष में धम्ममहामात्र नामक अधिकारी की नियुक्ति की।


 शिलालेख-6 


 सक्रिय प्रशासन एवं सुदृढ व्यापार की जानकारी मिलती है। धम्म महामात्र अधिकारी कभी भी मिल सकता है अथवा किसी भी समय अशोक से मिल सकता है। उस समय में भी जब अशोक अपने शयन कक्ष में हो अथवा निजि कार्यों में व्यस्त हो। (आत्म नियंत्रण की शिक्षा)



शिलालेख.7


इस अभिलेख में धम्म के स्वरूप को स्पष्ट किया है। तथा विभिन्न धर्मों के बीच धार्मिक सहिष्णुता की बात की है। सब मतों के व्यक्ति सब स्थानों पर रह सके, क्योंकि वे सभी आत्म-संयम एवं हृदय की पवित्रता चाहते हैं।


शिलालेख-8


धम्म नीति री व्याख्या की गई है। आखेट के बदले धम्म यात्रा को अपनाने की बात की गई है।


शिलालेख-9


विवाह, जन्मोत्सव आदि पर खचीर्ले समारोहों की पाबंदी की बात कही है। तथा ब्राह्मणों व श्रमणों के प्रति आदर रखने, दासों के प्रति करुणा भाव रखने की बातें मिलती हैं। इन कार्यों से स्वर्ग प्राप्ति होने का उल्लेख मिलता है। (सच्ची भेंट व सच्चे शिष्टाचार का वर्णन)


शिलालेख-10


इस अभिलेख में अशोक विभिन्न संप्रदायों के बीच असंतोष से चिंतित है। तथा ब्राह्मणों एवं श्रमणों के प्रति समान भाव रखने की बात करता है। (राजा व उच्च अधिकारी हमेशा प्रजा के हित में सोचें)


शिलालेख-11


धम्म की व्याख्या। धर्म के वरदान को सर्वोत्तम बताया।


शिलालेख-12


स्त्री महामत्रों की नियुक्ति व सभी प्रकार के विचारो के सम्मान की बात कही। धार्मिक सहिष्णुता की निति।


शिलालेख-13


इसमें शासन के 8वें वर्ष (261 ई.पू.) कलिंग विजय, कलिंग युद्ध, अशोक का हृदय परिवर्तन, पड़ोसी राजाओं का वर्णन मिलता है। इसमें मौर्य साम्राज्य के पश्चिम के पडौसी राजाओं का उल्लेख है, जिनके साथ अशोक के राजनैतिक संबंध थे।वे निम्नलिखित हैं


एण्टिओकस (सीरीया)।


टॉलेमी फिलाडेल्फस (मिश्र)।


मगस (सीरिन)


एलेक्जेण्डर (एपिरास)


एण्टीगोनस गोनाट्स (मकदूनिया



शिलालेख-14


धार्मिक जीवन जीने की प्रेरणा दी। 13 शिलालेखों में जो भी त्रुटि हुई हैं, उनको यहाँ सुधारा गया है।


भारत में संस्कृत भाषा का प्रथम अभिलेख शक शासक रूद्रदामन का गुजरात से जूनागढ़ अभिलेख मिला हैअशोक के शिलालेखों में चार लिपियां थी ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरेमाईक, यूनानी। राजस्थान के शिलालेखों में संस्कृत व राजस्थानी भाषा मिलती है। राजस्थान के महत्वपूर्ण शिलालेखों के बारे में महेश श कुमावत ने बहुत विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने इन शिलालेखों की ऐतिहासिकता प्रमाणित करते हुए जो विवरण प्रस्तुत किया है उसको इस जगह उद्धृत करना अत्यंत समीचीन लगता है।


श्री कुमावत के अनुसार इन सभी के बारे में संक्षेप में विवरण इस प्रकार मिलता है


बुचकला का शिलालेख


बिलाड़ा, जोधपुर (815 ई.) यह लेख प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय का हैं, इस लेख की भाषा संस्कृत तथा लिपी उतर-भारती हैं।


घटियाला शिलालेख


जोधपुर (861 ई.) यह लेख संस्कृत भाषा में हैं, यह शिलालेख एक जैन मन्दिर के पास हैं जिसे "माता का साल'' भीकहते हैं। राजस्थान में पहली बार सती प्रथा की जानकारी यही शिलालेख देता हैं इस शिलालेख के अनुसार राणुका की पत्नी सम्पल देवी सती हुई थी। यह शिलालेख कुक्कुक प्रतिहार की जानकारी देता हैं। इस शिलालेख का लेखक मग तथा उत्कीर्णकर्ता कृष्णेश्वर हैं।



आदिवराह मन्दिर का लेख


आहड़, उदयपुर (944 ई.)- ब्राह्मी लिपि में लिखित यह लेख मेवाड़ के शासक भृतहरि द्वितीय की जानकारी देता हैं।


प्रतापगढ़ का शिलालेख


अग्रवाल की बावड़ी, प्रतापगढ़ (946 ई.)- इसको अजमेर संग्रहालय में रखवाया गया था। इस शिलालेख की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस शिलालेख में संस्कृत भाषा के साथ कुछ प्रचलित देशी भाषाओं का भी उल्लेख हुआ हैं। प्रतिहार वंश के शासकों की नामावली भी इसी शिलालेख में हैं। यह शिलालेख 10वीं सदी के धार्मिक जीवन, गाँवों की सीमा आदि पर प्रकाश डालता हैं। यह शिलालेख प्रतिहार शासक महेन्द्रदेव की जानकारी देता हैं।


सारणेश्वर/सांडनाथ प्रशस्ति


आहड़, उदयपुर (953 ई.)- इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी, कायस्थ पाल व वेलाक हैं। इस प्रशस्ति में गुहिल वंश के शासक अल्लट की जानकारी मिलती हैं।


अँसिया का लेख


जोधपुर (956 ई.)- इस लेख में मानसिंह को भूमि का स्वामी तथा वत्सराज को रिपुओं/शत्रुओं का दमन करने वाला कहा गया हैं। यह शिलालेख वर्ण व्यवस्था की भी जानकारी देता हैं, इस शिलालेख के अनुसार समाज के प्रमुख 4 वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यक तथा शूद्र में विभाजित था वैसे पूर्व विदित यह तथ्य है कि वर्ण व्यवस्था की पहली बार जानकारी ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के पुरूष सूक्त से मिलती हैं। ऋग्वेद में 10 मण्डल व 1028 सूक्त हैं।


चितौड़ का लेख


चितौड़ (971 ई.)- इस शिलालेख की एक प्रतिलिपि अहमदाबाद में भारतीय मन्दिर में संग्रहित हैं तथा इस शिलालेख में में स्त्रियों का देवालय में प्रवेश निषेध बताया गया हैं।



नाथ प्रशस्ति


एकलिंग जी, कैलाशपुरी, उदयपुर (971 ई.)- इसकी भाषा संस्कृत तथा लिपि पि देवनागरी हैं, इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास का अच्छे से वर्णन मिलता हैं।


हर्षनाथ प्रशस्ति


रैवासा, सीकर (973 ई.)- यह प्रशस्ति चौहान वंश के शासक विग्रहराज के समय की हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हर्ष मन्दिर का निर्माण विग्रहराज के सामन्त अल्लट ने करवाया था। इस प्रशस्ति में वागड़ के लिए वार्गट शब्द का प्रयोग हुआ हैं।


हस्तिकुण्डी शिलालेख 


सिरोही (996 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित हैं, तथा इस शिलालेख में संस्कृत में सूयार्चार्य शब्द का प्रयोग हुआ हैं।


अथूर्णा प्रशस्ति- मण्डलेश्वकर मन्दिर, बांसवाड़ा (1079 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना विजय ने की थी, इस प्रशस्ति में बागड़ के परमार मालवा के परमार वंशी राजा वाक्पतिराज के दूसरे पुत्र डंवर के वंशज थे और उनके अधिकार में बागड़ तथा छप्पन का प्रदेश था।


जालौर का लेख-


जालौर (1118 ई.)- इस शिलालेख के अनुसार परमारों की उत्पति वशिष्ट मुनि के यज्ञ से हुई तथा परमारों की जालौर शाखा के प्रवर्तक वाक्पतिराज को बताया था।



नाडोल का शिलालेख


पाली (1141ई.) यह शिलालेख नाडोल के सोमेश्वर के मन्दिर का हैं तथा इस शिलालेख में तत्कालीन राजस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख मिलता हैं।


घाणेराव का शिलालेख


पाली (1156 ई.) इस शिलालेख में 12 वीं सदी की राजस्थान की स्थिति को दशार्या गया हैं।


ड़ली का शिलालेख


अजमेर (443 ई.पू.)- यह राजस्थान का सबसे प्राचीन तथा भारत का प्रियवा शिलालेख के बाद दूसरा सबसे प्राचीन शिलालेख है।


घोसुण्डी शिलालेख


नगरी, चितौड़गढ़ (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) यह ब्राह्मी तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में हैं। इसका एक टुकड़ा उदयपुर संग्रहालय में रखा गया है।


राजस्थान मे वैष्णव सम्प्रदाय का सबसे प्राचीन शिलालेख यही है। इस शिलालेख को सर्वप्रथम डी. आर. भण्डारण द्वारा पढ़ा गया था।



नांदसा यूप. स्तम्भलेख


नांदसा गाँव, भीलवाड़ा (225 ई.) इस शिलालेख की रचना विक्रम सवंत 282 में चैत्र पूर्णिमा को सोम ने की थी। इस स्तम्भ लेख से उतरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञ के बारे जानकारी मिलती है।


बनार्ला यूप. स्तम्भलेख


बनार्ला, जयपुर (227 ई.) इस स्तम्भ लेख को वर्तमान में आमेर संग्रहालय में रखा गया है।


बड़वा स्तम्भ लेख


बड़वा, कोटा (239 ई.) इस स्तम्भ लेख से त्रिरात्र यज्ञों के अप्तोताम यज्ञ का उल्लेख मिलता हैं। अप्तोताम यज्ञ अतिरात होता हैं तथा एक दिन चलने के पश्चात् दूसरे दिन चलता है। बड़वा स्तम्भलेख वैष्णव धर्म तथा यज्ञ महिमा का द्योतक है।


बिचपुरिया स्तम्भ लेख


बिचपुरिया, उणियारा, टोंक (224 ई.) इस लेख से यज्ञानुष्ठान का पता चलता हैं।


विजयगढ़ स्तम्भलेख


भरतपुर (371 ई.)- इस स्तम्भ लेख से राजा विष्णु वर्धन के पुत्र यशोवर्धन द्वारा यहाँ किये गये पुण्डरीक यज्ञ की जानकारी मिलती है।


नगरी स्तम्भलेख


चितौड़गढ़, (424 ई.)- यह शिलालेख वर्तमान में अजमेर संग्रहालय में रखा गया हैं यह शिलालेख नगरी का सम्बन्ध विष्णु की पूजा से बताता है।



चितौड़ के 2 खण्ड लेख


चितौड़दुर्ग, (532 ई.)- यह शिलालेख छठी शताब्दी के प्रारम्भ में मन्दसौर के शासकों का चितौड़ पर अधिकार से सम्बन्धित जानकारी देता हैं।


बसन्तगढ़ लेख


सिरोही, (625 ई.)- राजा वर्मताल के समय का यह लेख सामन्त प्रथा की जानकारी देता हैं।


सांमोली शिलालेख


भोमट, उदयपुर (646 ई.)- यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक शिलादित्य के समय का हैं, तथा यह शिलालेख शिलादित्य के समय की आर्थिक व राजनीतिक जानकारी देता हैं। इस शिलालेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि कुटिल हैं। गुहिलादित्य के समय के इस शिलालेख में लिखा गया है कि "वह शत्रुओं को जीतने वाला, देव ब्राह्मण और गुरूजनों को आनन्द देने वाला और अपने कुलरूपी आकाश का चन्द्रमा राजा शिलादित्य पृथ्वी पर विजयी हो रहा है।


इस लेख के अनुसार इसी समय जावर में तांबे व जस्ते की खानों का काम शुरू हुआ तथा जेंतक मेहतर ने अरण्यवासिनी देवी का मन्दिर बनवाया था, जिसे जावर माता का मन्दिर भी कहते हैं।



अपराजित का शिलालेख


नागदा, उदयपुर (661 ई.)- प्रख्यात इतिहासकार डॉ. ओझा को यह शिलालेख कुण्डेश्वर मन्दिर में मिला था, जिसको ओझा ने उदयपुर के विक्टोरिया हॉल के संग्रहालय में रखवाया था।


- इस लेख में लिखा हुआ है कि अपराजित ने वराहसिंह जैसे शक्तिशाली व्यक्ति को परास्त कर उसे अपना सेनापति बनाया था।


परमार का लूणवसहि अपनी बनवाया शासक में जबकि वासुदेव


मानमोरी का शिलालेख


पूठोली, चितौड़ (713 ई.)- यह शिलालेख टॉड को पूठोली में स्थित मानसरोवर झील के पास मिला था, टॉड इस शिलालेख को इंग्लैण्ड ले जा रहा था लेकिन भारी होने के कारण इस शिलालेख को टॉड ने समुद्र में फेंका था।


इस शिलालेख में अमृत मंथन का उल्लेख हैं। इस शिलालेख में चार राजाओं का उल्लेख- महेश्वदर, भीम, भोज तथा मान मिलता हैं।


शंकरघट्टा का शिलालेख


गंभीरी नदी के पास, चितौड़गढ़ (713 ई.)- यह शिलालेख चितौड़ में सूर्य मन्दिर का उल्लेख करता हैं।


कणसवा का लेख


कणसवा, कोटा (738 ई.)- यह शिलालेख मौर्यवंषी राजा धवल का उल्लेख करता हैं।


चाकसू की प्रशस्ति


जयपुर (813 ई.)- इस शिलालेख में चाकसू में गुहिल वंशीय राजाओं तथा उनकी विजयों का उल्लेख मिलता हैं।


किराडू का शिलालेख


बाड़मेर (1161 ई.) परमार शासकों के वंश क्रम की जानकारी देने वाला यह शिलालेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं, तथा इस शिलालेख में परमारों की उत्पति माउण्ट आबू के वशिष्ट मुनि के यज्ञ से बताई गई हैं। में तत्काण स ष्ट मुनि के यज्ञ से



बिजौलिया शिलालेख


भीलवाड़ा (1170 ई.) बिजौलिया के पार्श्वनाथ मन्दिर में लगा यह शिलालेख मूलतः दिगम्बर शिलालेख हैं।


इस शिलालेख से साम्भर व अजमेर के चौहान वंश की जानकारी मिलती हैं। बिजौलिया शिलालेख के अनुसार चौहान वंश की उत्पति वत्सगौत्र के ब्राह्मण से हुई। इस शिलालेख में उपरमाल के पठार को उतमाद्रि कहा गया हैं।


इस लेख के लेखक गुणभद्र व कायस्थ है लेकिन इसको पत्थर पर उत्कीर्ण गोविन्द ने किया था। इस शिलालेख के अनुसार साम्भर झील का निर्माण चौहान वंश के संस्थापक वासुदेव ने करवाया था।


लूणवसहि प्रशस्ति


देलवाड़ा, सिरोही (1230 ई.) संस्कृत भाषा में अंकित इस शिलालेख में आबू के परमार शासकों तथा वास्तुपाल व तेजपाल का वर्णन हैं। तेजपाल ने देलवाड़ा गाँव में लूणवसहि नामक स्थान नेमिनाथ का मन्दिर अपनी पत्नी अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था, की जानकारी देता हैं। आब के शासक धारावर्ष का वर्णन इसी शिलालेख में हैं, इसकी रचना सोमेश्वर ने की थी जबकि उत्कीर्ण चण्डेश्वर ने किया था।


सुण्डा पर्वत शिलालेख


जसवन्तपुरा, जालौर (1262 ई.) यह लेख संस्कृत भाषा में लिखा गया हैं तथा इसकी लिपि देवनागरी हैं।


इस लेख में प्रशस्तिकार, लेखक व उत्कीर्णक के नामों के साथ उनके गुरूओं व पिताओं के नाम भी उत्कीर्ण हैं। इस शिलालेख में चोचिंगदेव चौहान की जानकारी मिलती हैं।



गंभीर नदी का पुल शिलालेख


चितौड़ (1267 ई.)- इस शिलालेख का निर्माण खिज्र खां ने करवाया था।


चीरवा का शिलालेख


उदयपुर (1273 ई.)- यह शिलालेख गुहिलवंश के शासक जैत्रसिंह, तेजसिंह, समरसिंह आदि शासकों के बारे में जानकारी देता है। इस शिलालेख में टांटेड जाति के तलारक्षों के बारे में जानकारी मिलती हैं, जो नगर के सज्जन व्यक्ति का रक्षा तथा दुष्ट व्यक्ति को दण्ड देते थे।


बिठू का शिलालेख पाली  (1273 ई.)


रसिया की छतरी लेख- चितौड़ दुर्ग (1274 ई.)- इस शिलालेख से गुहिलवंश तथा मेवाड़ की स्थिति व उपज, पक्षियों व वृक्षावली आदि के बारे में जानकारी मिलती हैं।


अचलेश्वर लेख


सिरोही (1285 ई.)- पद्यमयी संस्कृत भाषा में रचित यह शिलालेख गुहिल वंश के संस्थापक बप्पा से लेकर समरसिंह की वंशावली के बारे में जानकारी देता है। इस शिलालेख में मेदपाट का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं कि "बप्पा द्वारा यहाँ दुर्जनों का संहार हुआ तथा उनकी चर्बी से यहाँ की भूमि गीली हो जाने से इसे मेदपाट कहते है।" चितौड़ के जैन कीर्ति स्तम्भ के तीन लेख- चितौड़ (13 वीं सदी)- इन अभिलेखों का स्थापनाकर्ता जीजा था।


जावर की प्रशस्ति- उदयपुर (1421 ई.)- इस प्रशस्ति में उस समय की संयुक्त परिवार प्रथा के प्रचलन, धार्मिक कार्यों में सम्पूर्ण परिवार के सम्मिलित होने तथा शिक्षा की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती हैं।


माचेड़ी का शिलालेख


माचेड़ी की बावड़ी, अलवर (1382 ई.)- इस शिलालेख में पहली बार "बड़गूजर" शब्द का प्रयोग हुआ हैं।


श्रृंगी ऋषि शिलालेख


कैलाशपुरी, उदयपुर (1428 ई.) इस शिलालेख की रचना कवि राजवाणी विलास ने की थी, यह लेख मोकल के समय का हैं जिसने अपनी पत्नी गौरम्बिका की मुक्ति के लिए श्रृंगी ऋषि के पवित्र स्थान पर एक कुण्ड बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा स्थापित करवाई। यह शिलालेख गुहिलवंशीय शासक हम्मीर, क्षेत्रसिंह व मोकल का भी उल्लेख करता हैं। इस शिलालेख में लिखा हुआ है कि राणा लाखा ने त्रिस्थली- काशी, प्रयाग व गया जाने वाले हिन्दुओं से लिए जाने वाले करों को हटवाकर वहाँ पर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था।


समाधीश्वर शिलालेख


चितौड़गढ़ (1428 ई.)- गुहिलवंश की धर्म स्थापना से सम्बन्धित इस शिलालेख की रचना एकनाथ ने की थी।


इस लेख में हम्मीर का वर्णन करते हुए लिखा गया हैं उसकी तुलना कामदेव, विष्णु, अच्युत, शंकर तथा कर्ण से की गई


देलवाड़ा का शिलालेख


सिरोही (1428 ई.)- मेवाड़ी भाषा में लिखित इस शिलालेख में टंक नामक मुद्रा व स्थानीय करों का उल्लेख मिलता हैं।


नागदा का शिलालेख


उदयपुर (1437 ई.)- समाज में बहुविवाह तथा संयुक्त परिवार जैसी प्रथाओं का उल्लेख इस शिलालेख में हैं।


रणकपुर प्रशस्ति


पाली (1439 ई.)- इस प्रशस्ति में बप्पारावल से कुम्भा तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं, सेठ धरनक शाह तथा उसके शिल्पी देपाक का नाम भी इस प्रशस्ति में उपलब्ध हैं।


इस प्रशस्ति में बप्पा व कालभोज को अलग-अलग बताया हैं। चौमुखा जैन मन्दिर में लगी इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत तथा लिपि देवनागरी हैं।


कुम्भलगढ़ प्रशस्ति


राजसमन्द (1460 ई.) इस प्रशस्ति को वर्तमान में उदयपुर के संग्रहालय में रखा गया हैइस प्रशस्ति में बप्पा रावल को ब्राह्मण वंशीयध्विप्रवंशीय बताया गया है, तथा मेवाड़ के उद्धारक हम्मीर को इसी प्रशस्ति में ही विषमघाटी पंचानन कहा गया है। महाराणा कुम्भा की विजयों का विस्तृत रूप से वर्णन इसी प्रशस्ति में मिलता है।


कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति


चितौड़गढ़ (1460 ई.)- इस प्रशस्ति की रचना अत्रि भट्ट ने आरम्भ की तथा इसके पुत्र महेश भट्ट ने पूर्ण की थी। इसे जैन प्रशस्ति भी कहते है। इस प्रशस्ति में हम्मीर, खेता, मोकल व कुम्भा की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैं। इस प्रशस्ति में कुम्भा की उपाधियां शैलगुरू, राजगुरू, दानगुरू, छापगुरू, हिन्दूसुतारण, राणो रासौ आदि मिलती हैं। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा रचित ग्रन्थ. संगीतराज, गीत गोविन्द का टीका, चण्डीशतक आदि का उल्लेख मिलता है। इस प्रशस्ति में कुम्भा द्वारा मण्डौर से हनुमान जी की मूर्ति लाने तथा दुर्ग के मुख्य द्वार पर लगवाने का उल्लेख मिलता हैं। कुम्भा के समय इस प्रशस्ति को 1460 ई. में अंकित किया गया था।


बीका स्मारक शिलालेख


बीकानेर (1504 ई.) इस शिलालेख में बीका के साथ 3 रानियों के सती होने का उल्लेख है।


बीकानेर प्रशस्ति


जूनागढ़ दुर्ग, बीकानेर (1594 ई.) इस प्रशस्ति को जूनागढ़ के सामने रायसिंह ने अपने मन्त्री कर्मचन्द के निरीक्षण में लगवाया था। इस प्रशस्ति के दोनों ओर जयमल व फता की मूर्तियां लगी हुई है।


आमेर का लेख- जयपुर (1612 ई.) कछवाहा वंश की जानकारी देने वाले इस शिलालेख में कछवाहा वंश के शासकों को "रघुवंश तिलक" कहा गया हैं।


जगन्नाथराय प्रशस्ति- उदयपुर (1652 ई.)- यह प्रशस्ति उदयपुर के जगदीश जी के मन्दिर में लगी हुई हैं, इसमें बप्पा से लेकर जगतसिंह तक के मेवाड़ शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता हैयह प्रशस्ति हल्दीघाटी के युद्ध का भी उल्लेख 814 करती हैं।


राजप्रशस्ति


राजसमन्द झील, (1676 ई.) यह प्रशस्ति राजसमन्द झील के उतरी भाग के 9 चौकी पाल पर लिखी हुई है तथा यह प्रशस्ति 25 शिलालेखों पर रणछोड़ भट्ट द्वारा संस्कृत भाषा मे लिखी गई हैं। यह एशिया की सबसे बड़ी प्रशस्ति है। इस प्रशस्ति में मुगल- मेवाड़ के बीच संधि का उल्लेख है। यह सन्धि जहांगीर व अमरसिंह के मध्य हुई थी।


__ इस प्रशस्ति में राजसिंह व जगतसिंह की उपलब्धियों का वर्णन हैं। इस प्रशस्ति में राजसिंह के समय का विषद् वर्णन हैं, तथा इस प्रशस्ति में ही उल्लेख है कि राजसमन्द झील का निर्माण अकाल राहत कार्य के लिए हुआ था, जिसका 14 वर्षों में कार्य पूर्ण हुआ।


वैद्यनाथ मन्दिर प्रशस्ति


सीसाराम गाँव, उदयपुर (1719 ई.)- यह प्रशस्ति पिछोला झील के पास वैद्यनाथ मन्दिर में स्थित हैं, इस प्रशस्ति के अनुसार हारितऋषि के आशिर्वाद से बप्पारावल को राज्य की प्राप्ति हुई थीइसकी रचना रूपभट्ट ने की थी, इस प्रशस्ति में संग्रामसिंह द्वितीय तथा मुगल सेनापति रणबाज खाँ के मध्य बाँदनवाड़ के युद्ध का वर्णन हैं।


राजस्थान में कई स्थानों से फारसी भाषा के भी शिलालेख मिले है


अजमेर का फारसी लेख- अजमेर, (1200 ई.)- यह राजस्थान में फारसी भाषा का सबसे प्राचीन शिलालेख है जो अढ़ाई दिन के झोंपड़े की दीवार पर लगा हुआ हैं। बरबन्द का लेख- बयाना, भरतपुर (1613 ई.)- इस शिलालेख के अनुसार अकबर की पत्नी (मरियमउज्जमानी) की आज्ञा से अकबर ने यहाँ पर एक बाग व बावड़ी का निर्माण करवाया गया।


पुष्कर का जहांगीरी महल शिलालेख- अजमेर (1615 ई.)


दरगाह बाजार की मस्जिद लेख- अजमेर (1652 ई.) इस शिलालेख के अनुसार मस्जिद का निर्माण प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन की पुत्री तिलोकदी ने 1652 ई. में करवाया था।


शाहजहानी मस्जिद शिलालेख- अजमेर (1637 ई.)


कनाती मस्जिद का लेख- नागौर (1641 ई.) इस शिलालेख के अनुसार अनेक चौहान शासक मुसलमान बन गये थे।


मकराना की बावड़ी का लेख- नागौर (1651 ई.) इस शिलालेख से जाति प्रथा का बोध होता हैं।


शाहजहानी दरवाजा का लेख- अजमेर (1654 ई.)


अमरपुर का लेख- नागौर (1655 ई.)


बकालिया का लेख- नागौर (1670 ई.)


जामी मस्जिद का लेख- मेड़ता, नागौर (1807 ई.), जामा मस्जिद का लेखभरतपुर (1845 ई.) राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना जयपुर में 1955 ई. में की गई थी जिसका मुख्यालय 1960 में जयपुर से बीकानेर स्थानान्तरित कर दिया गया था। इस अभिलेखागार में उर्दू व फारसी के अभिलेख स्थित है। जोधपुर संग्रहालय में मारवाड़ रियासत के पुराने रिकॉर्ड है जिन्हें "दस्त्री रिकार्ड" कहा जाता है। यहाँ पर स्थित अभिलेख 1614 से 1949 ई. के है।


साम्भर की मस्जिद का लेख -


जयपुर (1697 ई.) इस शिलालेख के अनुसार औरंगजेब के शासनकाल में एक मन्दिर की जगह शाहसब्ज अली द्वारा यहाँ पर मस्जिद बनाई गई। यहां यह बताना आवश्यक लगता है कि भारत मे अभी बहुत से शिलालेख ऐसे भी हैं जिन पर अंकित अक्षरों की भाषा अभी पढ़ी जानी है। सिंधु और मोहनजोदारो की लिपियों को अभी भी पूरी तौर पर पढ़ा नही जा सका है। भारत की प्राचीनता संबंधी अनगिनत आलेख, मुद्राएं और शिला अंकन हैं जिनको लेकर अभी भी काम हो रहा है।