शिलालेख-पुरातन नगर चन्देरी

सब दूर यह सर्वज्ञात एवं सर्वमान्य तथ्य है कि इतिहास ज्ञात करने को प्रामाणिक स्रोत पत्थरों पर उत्कीर्ण की गई वह इमारतें हैं जिसे शिलालेख की संज्ञा से नबाजा जाता है। पत्थर पर उकेरी गई चार पंक्तियाँ सालों-साल पूर्व किए गए कार्य, कार्य का उद्देश्य के साथ-साथ दिनांक सन्-संवत, हिजरी, तात्कालीन राजा-महाराजा के नाम, स्थान, पत्थर पर लिखने वाले कारीगर का नाम यहाँ तक कि उक्त मजमून किस की सोच का नतीजा है उसके नाम का भी उल्लेख करते हुए अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।


पत्थर पर लिखी गई चार लकीरें भी कितनी अजीबो-गरीब है, कैसी- कैसी जानकारियाँ सार्वजनिक करती है। कैसे-कैसे शोध खोज हेतु मार्ग प्रशस्त करती है। पत्थर पर उत्कीर्ण इमारत जिसे कोई शिलालेख कोई अभिलेख कोई शिलापट्टिका कोई पत्थरपट्टिका न जाने क्षेत्रीय भाषानुसार कितने नामों से परिचय कराते हैं। भले शिलालेखों को कोई किसी भी नाम से पुकारे अथवा किसी भी नाम से परिचय कराये यहाँ महत्वपूर्ण नहीं है। यदि महत्वपूर्ण है तो वह है कि पत्थररूपी शिलालेख जो विभिन्न तरह की जानकारी सार्वजनिक कर रहा है और उक्त जानकारी के माध्यम से हम अपने अतीत से रू-ब- रू होकर ज्ञान अर्जित करते हुए ज्ञान पिपासा को शांत कर रहे हैं।



वैसे भी यह एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि वर्तमान समय में अतीत में झांकने हेतु शिलालेख से उत्तम दूसरा कोई कारण भी नहीं है। क्योंकि शिलालेख आज न लिखे जाकर उस समय लिखे गए हैं जिसके काल खण्ड का वर्णन उसमें अंकित है। शिलालेख लिखे ही नहीं गए बल्कि उसी समय यथास्थान पर जड़ित भी किए गए हैं जो आज भी हमारे समक्ष प्रस्तुत हैं।


वैसे भी प्राचीन भारत के अतीत इतिहास को समझने के लिए विभिन्न विद्वानों, इतिहासकारों ने सम्पूर्ण भारत में फैली पुरातत्वीय सामग्री को समेट कर ही प्राचीन इतिहास की रचना की है जिसमें शिलालेख भी शामिल हैं। विद्वान डॉ. सत्यनारायण दुबे द्वारा प्राचीन इतिहास की जानकारी के मुख्य स्रोत क्रमशः 1. साहित्य 2. उत्कीर्ण लेख, 3. सिक्के, 4. पुरातत्व और विदेशी लेखकों की रचनाएँ आदि बतलाए गए है।



सब दूर यह सर्वज्ञात एवं सर्वमान्य तथ्य है कि इतिहास ज्ञात करने को प्रामाणिक स्रोत पत्थरों पर उत्कीर्ण की गई वह इमारतें हैं जिसे शिलालेख की संज्ञा से नवाजा जाता है। पत्थर पर उकेरी गई चार पंक्तियाँ सालों-साल पूर्व किए गए कार्य, कार्य का उद्देश्य के साथ-साथ दिनांक सन्-संवत, हिजरी, तात्कालीन राजा-महाराजा के नाम, स्थान, पत्थर पर लिखने वाले कारीगर का नाम यहाँ तक कि उक्त मजमून किस की सोच का नतीजा है उसके नाम का भी उल्लेख करते हुए अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं।



एक नहीं कई ऐसे शिलालेख पाए गए हैं जो उस समय नगर के प्रचलित नाम के साथ ही आमजन को कोई न कोई संदेश भी देने की जानकारी सार्वजनिक करते हैं। कहीं-कहीं आमजन को संदेश के साथ-साथ आमजन को संदेश के साथ-साथ चेतावनी की भी जानकारी उजागर करते हैं। कई शिलालेखों में विदेशी स्थलों की भी जानकारी उजागर होती है।



शिलालेखों को मात्र राजा-महाराजा अथवा सन्, सवंत-हिजरी आदि की जानकारी प्राप्त करने तक सीमित नहीं किया जा सकता शिलालेख हमारी लोक संस्कृति, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, प्राकृतिक, सर्वधर्म, सर्वधर्म-समभाव, प्रेम-सौहार्द, सामाजिक सरोकार से भी परिचय कराते हैं। मसलन उत्तम जानकारी अनुसार चन्देरी स्थित प्राचीन स्मारक कटी-घाटी का निर्माण 1795 ईस्वी में मालवा सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी के शासनकाल में कराया गया लेकिन कटी-घाटी में निर्मित द्वार का नाम गणपति द्वार रखा गया। कई शिलालेखों में सूफी-संतों के नाम इत्यादि की जानकारी मिलती है। आशय यह है कि शिलालेख हमारे गौरवमय अतीत का सच्चापक्का आईना है।



शिलालेखों का महत्व प्रतिपादित करते हुए स्मिथ के हवाले से डॉ. ए.के. मित्तल लिखते हैं कि


प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाले स्रोतों में सर्वाधिक महत्व एवं प्रामाणिक स्रोत अभिलेख है, क्योंकि अभिलेख समकालीन होते हैं। जिस राजा राज्य के विषय में अभिलेख पर लिखा होता है, अभिलेख की रचना भी उसी राजा के शासनकाल के समय की गई होती है अतः उस तथ्य से सत्य होने की सम्भावना अधिक होती है।



ऐसे ही विचारों से ओत-प्रोत शिलालेख के संबंध में श्री बी.एन. लुणिया द्वारा किए गए वर्णन को भी ध्यान में रखना तर्कसंगत होगा वह लिखते हैं कि


"ये तिथियों को निश्चित करने तथा इतिहास को एकरूपता प्रदान करने में अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अभिलेख से सामाजिक राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन पर यथैष्ठ प्रकाश पड़ता है। राजाओं के नाम उनकी वंशावली, तिथि, संवत्, हिजरी उनके समय की घटनाओं आदि का पर्याप्त ज्ञान भी प्राप्त होता है।"



हमारा मानना है कि किसी भी नगर में पाए गए शिलालेख मात्र जानकारियां ही उजागर नहीं करते अपितु शिलालेख उस नगर का इतिहास क्रमबद्ध करने के अतिरिक्त शोध-खोज, चिंतन-मनन हेतु एक सारगर्मित अध्याय समक्ष प्रस्तुत करते हैं। शिलालेख मात्र उस नगर की ही अमूल्य निधि, धरोहर-विरासात न होकर राज्य एवं राष्ट्र की अति महत्वपूर्ण सार्वजनिक सम्पति है जिन्हें हर हाल में संरक्षण, संवर्धन कर सुरक्षित किया जाना आज की महती आवश्यकता है।



जहाँ तक म.प्र. राज्य अंतर्गत पुरातन नगर चन्देरी का शिलालेख संदर्भ में संबंध है, यह एक ऐसा प्राचीन नगर है जो निरन्तर एक हजार वर्ष से आबाद होकर अपने आगोश में एक नहीं अनेक साक्ष्यों को संग्रहित किए हुए है। यह एक ऐसा मझौला नगर है जिसने विभिन्न काल खण्डों में विभिन्न राजवंशों के शासनकाल के उन्नति एवं अवनति के स्वाद को चखा है। मसलन-प्रतिहारवंश, गुलामवंश अंग्रेजों आदि के क्रिया-कलापों का केन्द्र बिन्दु चन्देरी आज भी अतीत की दास्ता बयान करने का मद्दा रखता है।



वर्तमान ऐतिहासिक नगर चन्देरी में पाए गए विभिन्न राजवंश विभिन्न कालखंड के शिलालेख अतीत से परिचय कराने का बेहतरीन माध्यम है। शिलालेख अथवा अभिलेख जिन्हें स्थानीय स्तर पर बीजक भी कहा जाता है आज भी अनेकों-अनेक प्राचीन स्मारकों में अपने मूल स्थान पर यथावत जडित होकर स्वयं के साथ क्या-क्या बीती, सच्ची-सच्ची गौरव गाथा बखान कर रहे हैं। दुःख होता है कई स्मारकों में से शिलालेख जानबूझ कर अथवा भूलवश उन्हें उनके मूल स्थान से हटा दिए गए हैं या फिर उन्हें तोड़ दिए गए हैं स्वार्थवश किए गए मनुष्यजन कारित कृत्य से नगर का ही नहीं राष्ट्र की भी अपूर्णनीय क्षति हुई है जिसकी पूर्ति की जाना सभव नहीं।



वर्तमान चन्देरी नगर का सर्वाधिक प्राचीन शिलालेख जिसके माध्यम से नगर की स्थापना के साथ-साथ चन्देरी दुर्ग, मंदिर एवं तालाब की जानकारी उजागर होती है। शिलालेख आज भी प्रामाणिक साक्ष्य होकर म.प्र. राज्य पुरातत्व संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में सुरक्षित, संरक्षित एवं प्रदर्शित होकर वर्तमान चन्देरी प्राचीनता का अकाट्य साक्ष्य है। शिलालेख का हिन्दी अनुवाद श्री हरिहर निवास द्विवेदी द्वारा निम्न वर्णित है



"जैत्रर्मन-चन्देरी-प्रस्तर लेख, पंक्ति 32, लिपि प्राचीन नागरी, भाषा संस्कृत। प्रतिहार वंशावली दी हुई है। ग्वालियर सू. सं. 2107, गाइड टू चन्देरी पृष्ठ व इसके अनुसार प्रतिहार वंशावलीनीलकण्ठ, हरिराज, भीमदेव, रणपाल, वत्सराज, स्वर्णपाल, कीर्तिपाल, अभयपाल, गोंविदराज, राजराज, वीरराज, जैत्रवर्मन। कीर्तिपाल और कीर्ति दुर्ग, कीर्ति सागर तथा कीर्ति स्मारक मंदिर स्मारक मंदिर निर्माण का उल्लेख।"



चन्देरी से संबंधित एक अन्य तिथिरहित शिलालेख की जानकारी प्राप्त होती है जो म.प्र. राज्य पुरातत्व संग्रहालय गूजरी महल ग्वालियर में सुरक्षित संरक्षित है। उक्त शिलालेख के बारे में श्री हरिहर निवास द्विवेदी द्वारा रचित "ग्वालियर राज्य के अभिलेख" में निम्न प्रकार उल्लेखित है



 "अभयपाल-चन्देरी-प्रस्तर लेख। पंक्ति 8, लिपि प्राचीन नागरी भाषा संस्कृत। महाराज हरिराज से लेकर अभयपाल तक प्रतिहार राजाओं का वंश वृक्ष दिया हुआ है। ग्वालियर पुरातत्व रिपोर्ट सम्वत् 1997, संख्या 3। इस अभिलेख की लिपि 12वीं शताब्दी की ज्ञात होती है, इसमें हरिराज, भीम, रणपाल, वत्सराज तथा अभयपाल के नाम दिए हैं।"



क्षेत्रीय इतिहास से यह तथ्य पुष्ठ है कि 09-10वीं सदी में भारत में स्थित कन्नौज क्षेत्र में राज कर रहे प्रतिहारवंश की एक गौण शाखा इस क्षेत्र पर राज कर रही थी। ऊपर वर्णित शिलालेख में राजाओं के नाम का उल्लेख है इस प्रकार यह तय है कि प्रतिहारवंशी राजा कीर्तिपाल ने वर्तमान चन्देरी की स्थापना कर प्रामाणिक इतिहास को गति प्रदान की है।



जैसा कि ऊपर वर्णित शिलालेख जानकारी प्रद्वत कर रहा है कि कीर्तिपाल ने एक दुर्ग, एक मंदिर एवं एक तालाब का निर्माण कराया और स्वयं के नाम पर दुर्ग का नाम कीर्ति दुर्ग रखा जो आज भी प्रचलन में है। तालाब का नाम कीर्ति सागर रखा जिसे आज भी कीरत सागर के नाम से पहचाना जाता है, कीरत कीर्ति का ही अपभ्रंश है इसके अलावा मंदिर का नाम कीर्तिनारायण मंदिर रखा जो आज अस्तित्व में नहीं है। लेकिन प्रामाणिक जानकारी समक्ष में है कि पूर्वकाल में मंदिर का निर्माण किया गया था। यही शिलालेख की खूबसूरती या विशेषता कही जावेगी जो हमें सदियों पूर्व घटित घटनाओं से अवगत कराते हुए आत्मचिंतन हेतु मार्ग प्रशस्त करता है।



इस क्रम में याद यह रखना भी अति आवश्यक है कि वर्तमान चन्देरी के पूर्व स्थापित चन्देरी जिसे आज बूढ़ी चन्देरी के नाम से पहचाना जाता है वहाँ पर भी शिलालेख प्राप्त होने की जानकारी मिलती है। इंडियन आरकेलोजी 1970-71-ए रिव्यू (INDIAN ARCHAEOLOGY 1970-71-A REVIEW) में वर्णित शिलालेख का वर्णन निम्न अनुसार है


INSCRIPTION, BUDHI-CHANDERI. DISTRICT GUNA- THIS inscription is in Sanskrit language and Nagari characters and is dated Vikrama 1100 (A.D. 1043). It belongs to the reign of the king Ranapaladeva who was probably of the Paratihara dynasty of Gwalior It is a prasasti in praise of the Saiva ascetic Prabodhasiva of the spiritual lineage of the Saiva ascetic Dharmasanbhu, composed by a certain Dasaratha.


बूढ़ी चन्देरी में प्राप्त उक्त शिलालेख इन तथ्यों को पुष्ठ करता है कि वर्तमान चन्देरी के पूर्व बूढ़ी चन्देरी आबाद ही नहीं थी बल्कि प्रतिहारवंशी शासकों की पकड़ में भी थी।


पुरातन नगर चन्देरी के एक महत्वपूर्ण घटनाचक्र जौहर एवं जौहर स्मारक में जड़ित शिलालेख एवं उससे संबधित जानकारी का उल्लेख करना आवश्यक है जिसके कारण चन्देरी का नाम आज भी प्रमुखता के साथ भारतीय इतिहास में दर्ज है। चन्देरी स्थित जौहर स्मारक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (भारत सरकार) द्वारा राष्ट्रीय महत्व का घोषित एवं संरक्षित होकर कीर्ति दुर्ग का अति महत्वपूर्ण अंग है। दूसरी सच्चाई यह है कि जौहर स्मारक एवं दुर्ग एक दूसरे के पूरक है। जौहर स्मारक के ठीक पीछे वह स्थल है जहाँ जौहर हुआ था वर्तमान में उक्त स्थल ने तलैया का रूप धारण कर लिया है अतएव उस स्थल को जौहर तलैया के रूप में पहचाना जाता है।


यह स्मारक 29 जनवरी 1528 ईस्वी को मुगल बाबर द्वारा चन्देरी पर किए गए बलात् हमला में हुए खून-खराबा की याद दिलाता है। इस युद्ध में चन्देरी राजा वीर राजपूत मेदिनीराय एवं उनके बहादुर सैनिको ने वीरगति प्राप्त की। त्तपश्चात रानी एवं हजारों राजपूत वीरागनाओं ने स्वयं को आग में समर्पित कर अपने सतीत्व की रक्षा हमलावरों से की थी। जौहर छत्री के मध्य जौहर स्तम्भ है। जिसमें तीन दृश्य उत्कीर्ण किए गए हैं।


प्रथम- स्वर्ग में वीरांगनाओं द्वारा शिव पूजन।


द्वितीय- युद्ध का दृश्य।


तृतीय- जौहर करती हुई वीरांगनाए


जौहर स्मारक का निर्माण ग्वालियर रियासत दौरान ग्वालियर नरेश महाराजा श्रीमंत जीवाजीराव सिंधिया के शासनकाल 1932 ईस्वी में हुआ। आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि जौहर की घटना 1528 ईस्वी में घटित हुई थी। आगे आने वाले समय में लगातार 250-300 वर्ष तक चन्देरी पर बुन्देला राजाओं का राज्यकाल रहा लेकिन किसी ने भी जौहर की ऐतिहासिक घटना की ओर ध्यान नहीं दिया।


काश तात्कालीन महाराजा सिंधिया भी इस ओर ध्यान न देते, जौहर स्मारक का निर्माण न कराते शायद चन्देरी दुर्ग का सम्मान अधूरा रह जाता। लेकिन ऐसा हो न सका और विपरीत इसके सिंधिया सरकार ने चन्देरी के ऐतिहासिक एवं जौहर के महत्व को समझा और उसे पूर्ण सम्मान देते हुए जौहर स्मारक का निर्माण करा कर चन्देरी के गौरवमय अतीत को भविष्य हेतु सुरक्षित किया।


जौहर स्मारक में पाँच अभिलेख जड़ित हैं, एक-एक अभिलेख स्मारक की चारों दीवारों में वहीं एक अभिलेख जौहर स्तम्भ के पीछे उत्कीर्ण होकर जौहर से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराता है। जो निम्न प्रकार है।


1. जौहर स्मारक किला चंदेरी


राजा मेदिनीराय व उनके वीर सैनिक जिस समय हताश होकर बावर बादशाह की फौज से अपना अंतिम युद्ध करने को निकले उस समय इस ताल के किनारे विक्रम संवत 1584 माघ सुदि 8 बुधवार को बहुतसी राजपूत वीरांगनाओं ने बड़ी वीरता से जौहर मनाया (अर्थात् जीवित ही अपने को अग्नि के समर्पण किया)


2. JOHAR MONUMENT FORT CHANDERI


ON THE BANK OF THIS TANK, MANY RAJPUT LADIES HEROICALLY PERFORMED JOHAR (E. BERNT THEMSELES ALIVE) JUST BEFORE RAJA MEDINI RAI AND HIS BRAVE FOLLOWERS ISSUED FORTH FROM THE CITADAL TO FIGHT THEIR LAST DESPERATE BATTLE WITH THE FORCES OF EMPEROR BABAR ON THE 29th JANUARY 1528 A.D.


3. जौहर स्मारक किला चंदेरी


यह स्मारक ग्वालियर के पुरातत्व विभाग ने श्रीमंत सदाशिव राव पवार होम मेंबर की आज्ञानुसार विक्रम संवत 1988 में ग्वालियर नरेश महाराजा जीवाजीराव शिंदे आलीजाह बहादुर के शासनकाल में बनाया


मो.ब.गर्दै


सुपरिटेडेंट आर्केओलॉजी


4. Johar Monument Fort Chanderi


The monument was erected by the Gwalior Archaeological Department by Order of Shrimant Sadashiva Rao Pawar Home Member in 1932 A.D. during the reign of his Highness Maharaja Jiwaji Rao Scindia Alijah Bahadur of Gwalior.


M.B. Garde


Superintendent Archaeology


5. जौहर स्मम्भ लेख


ऊँ सिद्धि श्री संवत 1584 वर्ष माघ सुदि 8 बुध दिने अद्येह चंद्रागिरी दुर्ग महाराज श्री मेदिनीराय राज्ये श्री बावर पातशाह युद्धाबसरे अत्र सरस्तीरे असंख्याता राजपूत वीरांगना सतीत्व रक्षार्थ जौहरेण, विधिना ज्वलन प्रविश्य दिवंगता।


चन्देरी एक ऐसा प्राचीन नगर है जो आज तक अपने प्राचीन स्वरूप को बहुत हद तक सुरक्षित किए हुए है। चूकि नगर में पुरा सम्पदा का कोई अभाव नहीं है एक नहीं अनेक स्मारक आज भी ज्यों के त्यों उपस्थित होकर उनमें जड़ित शिलालेख सच्ची-सच्ची दास्ताँ बयान कर रहे हैं। यहाँ पर निम्न शिलालेख का वर्णन किया जा रहा है


शंकर मंदिर शिलालेख


श्री शंकर भगवान को समर्पित यह प्राचीन मंदिर श्री प्रेम मालीजी की कृर्षि भूमि परिसर में स्थित दरीबा बावड़ी के निकट स्थित है। मंदिर पूर्ण रूप से पूर्व स्थिति में मौजूद है। मंदिर के चारों ओर पत्थर फर्शी का उपयोग अधिकता से किया गया है।


मंदिर से संबंधित अभिलेख मंदिर प्रवेश द्वार के ऊपर जड़ित होकर आज भी सुरक्षित है। उक्त अभिलेखानुसार चन्देरी राजा दुर्जन सिंह बुन्देला के पुत्र युवराज मानसिंह बुन्देला द्वारा विक्रम संवत 1724 (1667 ईस्वी) में शिवलिंग की स्थापना की और मंदिर का निर्माण हुआ है। मंदिर निकट दरीबा नामक प्राचीन बावड़ी स्थित है।


उक्त अभिलेख के बारे में श्री हरिहर निवास द्विवेदी द्वारा रचित "ग्वालियर राज्य के अभिलेख' नामक पुस्तक में वर्णन निम्न प्रकार उल्लेखित है।


विक्रम संवत 1724-चन्देरी (गुना) बावड़ी पर प्रस्तर लेख।


बावड़ी पर प्रस्तर लेख।


पंक्ति 23, लिपि नागरी, भाषा संस्कृत।


श्री काशीश्वर चक्रवर्ती विक्रमादित्य के पुत्र युवराज मानसिंह द्वारा "मानसिंहेश्वर' नाम से प्रख्यात एक शिवलिंग की स्थापना के उल्लेख युक्त एक प्रशस्ति।


 ग्वा. पुरातत्व रिपोर्ट सम्वत् 1981. संख्या 210. माघ सुदी 8 सोमवार।


चन्देरीसाडी प्रशिक्षण केन्द्र


यह शिलालेख नगर स्थित एक प्राचीन गढ़ी-हवेली के प्रवेश द्वार के ठीक सामने दीवार पर जड़ित है। जैसे ही आप इस हवेली में प्रवेश करेंगे आपका सामना इस शिलालेख से ही होगा


वर्तमान में इस हवेली को परम्परागत चन्देरी साड़ी गिन्नी के नाम पर गिन्नी भवन के नाम से पहचाना जाता है। जबकि पूर्वकाल में इसे कारखाना कह कर सम्बोधित किया जाता था। ग्वालियर रियासत के समय ग्वालियर नरेश महाराजा श्रीमंत माधवराव सिंधिया के शासनकाल दौरान 5 दिसम्बर 1910 ईस्वी को इस हवेली में बुनकरों के हितार्थ केन्द्र की स्थापना की गई। तभी से इस हवेली में चन्देरी साड़ी से सम्बधित गतिविधियाँ संचालित हो रही है। इसके पूर्व यह हवेली राजशाही के किसी सदस्य का निवास स्थल हुआ करता था।


वर्तमान में इस गढ़ी-हवेली में म.प्र. शासन हाथ करधा विभाग द्वारा चन्देरी साड़ी प्रशिक्षण केन्द्र संचालित है। विभाग द्वारा इस हवेली के एक हिस्से में चन्देरी साड़ी संग्रहालय की स्थापना की गई है जिसमें साड़ी से संबंधित विभिन्न गतिविधियों से अवगत कराते हुए पुरानी साड़ियों को भी प्रदर्शित किया गया है। हवेली का कुछ भाग आज भी रिक्त है।


गिन्नी नामक प्राचीन गढ़ी-हवेली में जड़ित उक्त शिलालेख में क्या लिखा हुआ है। सम्पूर्ण विवरण निम्न अनुसार है :


This Institute of Textile Technology was opened by Major General His Highness the Maharaja Sir Madhao Rao Scindia Alijah Bahadur G.G. S.I.G.C.V.D.G.C.P.M.L.L. D.A.D.C. on the 5th December 1910, for the benefit of the entire weaving community of the Gwalior state.


The institute was erected nad fitted by Babulal Govila textile engineer Rao Bahanur Shyam Sunder Lall B. A. C. L. E. F. A. U. Inspector General Commerce and Industry Gwalior.


ईदगाह शिलालेख


ईदगाह नामक यह दर्शनीय धार्मिक स्थल बायपास सड़क के किनारे केन्द्रीय विद्यालय के सामने स्थित है। ईदगाह इमारत की लम्बी दीवार के मध्य अभिलेख जड़ित है जो आज भी सुरक्षित एवं प्रदर्शित है।


यह अभिलेख (88” x 41") फारसी भाषा पद्य में एवं नस्ख लिपि में निबद्ध है। अभिलेख का सारांश यह है कि नवाजगाह (ईदगाह) का निर्माण मसनद-द-अली शेर खाँ ने 13 रमजान हिजरी 900 (7 जून 1495 ईस्वी) में मालवा सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी के राज्यकाल में पूर्ण किया।


स्मरण रखना होगा कि मालवा सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी के शासनकाल में शेर खाँ चन्देरी का गवर्नर था। वर्तमान में ईदगाह पर मुस्लिम समाज द्वारा ईद के शुभ अवसर के अलावा अन्य किसी विशेष अवसर पर नमाज अदा की जाती है। प्राचीन दर्शनीय स्थल पर म.प्र. राज्य पर्यटन विकास निगम द्वारा पर्यटन सुविधा विस्तार अंतर्गत कार्य किए गए है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (भारत सरकार) द्वारा प्रकाशित एपिग्राफिका इंडिका ARABIC AND SUPPLEMENT 1964-65 ईस्वी में INSCRIP- TIONS OF THE SULTANS OF MALWA अंतर्गत INSCRIPTION, DATED A.H. 900 FROM CHANDERI पेज 73 एवं पेज 74 पर उक्त अभिलेख के संबंध में जानकारी निम्न प्रकार वर्णित है :


The nineteenth inseription, being the seventh of Ghiyath Shah, is again from Chanderi. Fixed on the central milrab of the Idgah of the town, its tablet measuring 88 by 41 cm. contains seven lines of Persian verses recording the construction of the namazgah, i.e. place of Id prayers, by Masnad-i--Ali, entitled Sher Khan in 1495 A.D. during the reign of Ghiyathu'dDin.


So far as we know, the personal name of this famous nobleman—who has been already mentioned in inseription Nos. XIV and XV above—is nowhere mentioned except here for the first time. The text of inseription NoXIV above contain a hint to this fact, but it is too vague to admit an assertion.


The text is in Persian verse of a tolerably good guality, and the style of writing is fair Naskh.


TRANSLATION


(1) Thank God that Masnad-i-Ali Sher Khan of noble origin was inspired by God to carry out construc___tion of this edifice.


(2) That man of dignity completed this namazgah (i.e.Idgah) in the reign of the ruler on the aurface of the world Ghiyathu 'd-Din.


(3) (He is) that 'Ali whom the title of Sher Khan befits, Just as the title Sher-i-Haq (Iion of God) was the becoming sobriquet of (the fourth caliph) 'Ali'.


(4) The eye of time has not seen the like of this building, in point of cleanliness and purity, throughout the climes and countries.


(5) The year from the Migration was nine hundred (and it was) thirteenth of the month of Ramadan (13th Ramadan A.H. 900=7th June 1495 A.D.), when (it) was completed eith the help and mercy of the Creator.


(6) O God ! favour its builder eith your protection, as long as the sun and the moon exist on the revolving sky!


(7)Also, as long as the world celebrates the days of Id and Friday, make the pillars of his position and fortune everlasting like the sky !


सारतः यह कहा जाता है कि भारतीय शिलालेख चाहे फिर वह गाँव, नगर, शहर, प्रदेश-देश के किसी भी भू-भाग पर किसी भी स्थान पर जड़ित हो अथवा प्रदर्शित हो हमारी राष्ट्रीय धरोहर है। उन्हें हर हाल में बचाए जाने के प्रयत्न किए जाने चाहिए फिर चाहे वह शासकीय स्तर पर हो अथवा अशासकीय स्तर पर हो, ताकि आगामी पीढ़ी अपने देश के गौरवमय अतीत से भांति-भात रू-ब-रू होती रहे।।