श्री ललित शर्मा का डॉ. वाकणकर से वर्ष 1986-1988 ई. में सम्पर्क के दौरान शिष्य रूप में उनके स्वर्गवास से पूर्व ' 'भारती कला भवन' में हुई एक महत्वपूर्ण भेटवार्ता के कुछ अंश:

शैलाश्रयों के प्रति आपका रूझान कब व किन परिस्थितियों में हुआ?


सन् 1950 ई. में शैलाश्रयों की ओर मेरा रूझान हुआ था, जब मैं भोपाल में मनुआ भांग स्थान की टेकरी पर घूमने गया था। वहां मैंने एक गुफा देखी, उत्सुकता वश मैं उसमें प्रवेश कर गया। देखा तो अन्दर एक विशाल चट्टान पर गेरू, रंग का शेर बना हुआ था। जिज्ञासावश उसका चित्र लेकर मैंने बाद में शोध किया, तो वह आदिमानव द्वारा चित्रित शैलाश्रय था। बाद में अधिक उत्सुकता वश मैंने पुनः उक्त स्थान का व्यापक सर्वेक्षण कर 19 गुफाओं में अनेक शैलाश्रय खोजे। 1953-54 ई. में रामपुराभानपुरा के समीप जलोद ग्राम में सर्वेक्षण के दौरान मुझे एक से डेढ़ लाख वर्ष पूर्व के आदिमानव कालीन हथियार प्राप्त हुए। रामपुरा में भी मुझे 5,00,000 वर्ष पूर्व के प्राचीन पाषाण के औजार मिले थे। निकटवर्ती मनौती ग्राम में खुदाई के दौरान मुझे हड़प्पायुगीन संकेत भी प्राप्त हुए थे। 1954 ई. में ही झालावाड़ के पास गागरोन की प्राचीनतम बलिण्डा घाटी की पर्वतीय गुफा में मुझे काले रंग के हिरण का शैलाश्रय प्राप्त हुआ था जो मध्याश्म काल (4000 से 10000 वर्ष पूर्व) का है।



शैलाश्रय आपकी भाषा में क्या है और ये किस प्रकार इतिहास के बन्द पृष्ठों को उजागर करते हैं?


शैलाश्रय गुहा मानवों द्वारा लाल, काले तथा गेरू, रंग से बनाए गए चित्र हैं, जिनमें उनके उत्तरोत्तर विकास का ज्ञान होता है। शैलचित्रों की उपलब्धि ने प्रागैतिहासिक मानव के जीवन विकास और कला के भावों को समझने में अपना अपर्व योगदान दिया है। ये कला चित्र अप्रत्यक्ष रूप से आदिमानव के स्वभाव, मनभावना, कला और उसके क्रिया कलापों के साथ भाषा के विषय में बहुत प्रकाश डालते हैं। प्राग युग में 40000 वर्ष पूर्व का गुहामानव जो अपने साथी जानवरों तथा होने वाली घटनाओं को देखा करता था वह उनके चित्र बनाया करता था। यही चित्र कालान्तर में प्रागैतिहासिक शैलाश्रय कहलाए। क्योंकि इतिहास का आरम्भ वेदों के आधार पर 40000 से 60000 वर्ष पूर्व का माना गया है। यही चित्र इतिहास के अग्रपृष्ठों में समवेश होकर इतिहास के पूर्व के अर्थात् प्रागैतिहासिक कहलाते हैं।


हादौती एवं मालवा क्षेत्र के शैलाश्रयों की आकति काल निर्धारण तथा उपयागता पर आपक विचार क्या है?


हाड़ौती क्षेत्र में मध्याश्मीय युग के शैलाश्रय अधिक है। उनकी आकृतियां जंगली भैंसे, हिरन, हाथी, गाय, व गैंडे के रूप में काले, लाल तथा गेरू, रंग से बनी हुई हैं। 1954-55 ई. में द्वितीय सर्वेक्षण के दौरान मुझे झालावाड़ में कालीसिन्ध नदी के किनारे की पहाड़ी में 5,00,000 वर्ष पूर्व के लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए थे तथा निकटवर्ती कस्बे सुनेल के ग्राम झीकड़िया में 1,00,000 वर्ष पूर्व की षट्कोणीय तक्षणियां मिली थी, जिनका उपयोग गुहा मानव भाले-तीर के अग्रभाग को नुकीले बनाने एवं हड्डियों के बाणों के अग्र भाग को नुकीले बनाने में करते थे। कोटा जिले के सुकेत कस्बे में मुझे ऐसे प्राचीन उपकरण भी मिले जो मोहनजोदड़ो से प्राप्त उपकरणों से मिलते जुलते हैं। जबकि मालवा क्षेत्र में 1953 ई. में मन्दसौर, निमाड़, महेश्वर तथा 1959-60 ई. में मोड़ी इन्द्रगढ़, मनौती की खुदाई में मुझे ताम्राश्मयुगीन अवशेष मिले थे। 1960 ई. में भीम बैठका सहित मिजापुर एवं होशंगाबाद में मुझे महत्त्वपूर्ण शैलाश्रय प्राप्त हुए थे। इनके अलावा मुख्य रूप से 1962 से 1982ई. तक कायथा, इन्दौर तथा दंगवाड़ा की खुदाई में भी मुझे ताम्राश्मीययुगीन सभ्यता के उपकरण प्राप्त हुए थे।



शैलाश्रय आज किन परिस्थितियों में नष्ट होते जा रहे हैं, इनका मूल्यांकन समाज की निगाहों में क्यों नहीं है?


अधिकांश शैलाश्रय शहरों से दूर बीहड़ों व नदी घाटियों की पाषाणी गुफाओं में स्थित होने तथा ना समझ ग्रामीणों व आदिवासियों द्वारा उखाड़ने या कुरेदने से ये नष्ट हो रहे हैंशैलाश्रयों की खोज मात्र पुस्तकों के बन्द पृष्ठों तक ही सीमित रह गई है जो समाज के मूल्यांकन में अवरोधक साबित हुई हैं। मुख्य रूप से शैलाश्रयों की प्राप्ति और उपयोगिता का अंग्रेजी में लिखा जाना भी आम लोगों व समाज के लिए दुर्भाग्य ही साबित हुआ है।


शैलाश्रयों की भाषा को आम लोगों तक पहुंचाने के लिए क्या किया जाना आवश्यक है?


शैलाश्रयों के बारे में ग्रामीणों की सामान्यतः धारणाएं होती है कि वे भूत-प्रेतों या देवताओं द्वारा बनाए गए हैं अतः शोधकताओं को इसी धारणा को ध्यान में रखकर शैलाश्रयों की खोज करनी चाहिए। चित्रों को प्रामाणिकता व आंचलिक मान्यताओं के आधार पर प्रदर्शनी के माध्यम से वास्तविक वैज्ञानिक शोध के साथ आम लोगों व समाज के समक्ष प्रदर्शित करना चाहिए, जिससे उनकी कला व उपयोगिता सिद्ध हो सके।


शैलाश्रयों के प्रति एक इतिहासकार का कितना रूझान होता है?


इस बारे में उसे शैलाश्रयों का औपचारिक ज्ञान तो होना ही चाहिए। साथ ही यह भी कि वह निर्जन स्थानों में जाने से घबराए नहीं। क्योंकि शैलाश्रय व इतिहास तो दुर्गम नदी-घाटियों में, पाषाणों तथा खण्डहरों में छिपा हुआ है। अतः एक सफल इतिहासकार को चाहिए कि वह प्राप्त जानकारी को निष्पक्ष व प्रमाणिक रूप से उजागर करें, जिससे उसका परिश्रमपूर्ण रूझान इतिहास के अन्धकारमय पृष्ठों को अनावृत करने में समर्थ हो सके।


इतिहास के उदीयमान लेखकों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?


किसी भी इतिहास लेखक को इतिहास के किसी भी बिन्दु पर लिखने से पूर्व उस बिन्दु की गहराई तथा विश्लेषण को बुद्धि तथा विवेक से परखना चाहिए, क्योंकि इतिहास पुष्ठ प्रमाणों पर ही आधारित होता है। किसी भी ऐतिहासिक स्थल की खोज दृढ़ निश्चय, परिश्रम तथा विज्ञान सम्मत सत्यता के साथ ही की जानी चाहिए तथा निश्चित प्रमाण प्राप्त होने पर ही उस कार्य को समाज के सम्मुख प्रदर्शित करना चाहिए, जिससे उनका परिश्रम इतिहास का वास्तविक अंग बन सकें।


जनमानस को पुरातत्त्व के सम्बन्ध में आपका कोई संदेश दीजिए।


जहाँ-जहाँ भी प्राचीन अवशेष हो, वहाँ की ग्राम पंचायते, स्थानीय नगर निकाय तथा स्थानीय विद्यालय को वहाँ के प्रति जनमानस में आस्था जगाना चाहिये और सुरक्षित स्थान बनाकर उन प्राचीन अवशेषों को वहाँ प्रतिष्ठित कर उनकी सुरक्षा करनी चाहिए। यूरोप की यात्रा के दौरान मैंने देखा कि वहाँ चार सौ वर्ष पूर्व के अवशेषों को संवार कर पर्यटकों को आकर्षित किया जाता है। ऐसा ही हमारे देश में भी हो ताकि अर्थव्यवस्था एवं पर्यटन के साथ पुरातत्त्व की कला धरोहर में सुधार व समृद्धि और अस्मिता बढ़ सके।