व्याघ्रपादपुर (बघेरा) के शिलालेख

अतीत और वर्तमान को जोड़ने वाली कड़ी है इतिहास। अतीत के । राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक परिवर्तन वर्तमान कालीन इतिहास के प्रेरणा स्रोत होते है। सुदूर अतीत से लेकर ऐतिहासिक काल तक के सांस्कृतिक अवदानों की विकास यात्रा में पुरातत्व का योगदान अप्रतिम कहा जा सकता हैऐतिहासिक साक्ष्यों (साधनों) से अतीत की जानकारियाँ प्राप्त होती है जिनमें राजवंशावलियाँ, काव्यगाथाएँ, ख्यातएमुद्राएँ स्थापत्यकला, तक्षण कला प्रतीक, मूर्तिलेख एवं शिलालेख प्रमुख है। शोध अध्ययन के दृष्टिकोण से विवेचन किया जाए तो इन पुरातात्विक साधनों में सर्वाधिक सहायक साधन शिलालेख है। भारतीय उपमहाद्वीप में लेखन की कला का श्री गणेश हजारों वर्ष पूर्व हो चुका था। सिन्धु घाटी सभ्यता के पुरावशेषों पर टंकित 'सैंधव लिपि' इस बात का साक्ष्य है। लिपि की विकास यात्रा का अध्ययन करे तो कहा जा सकता है कि इस विधा ने चित्रमाला (चित्रांकन) से अक्षरमाला तक का सफर तय किया है



विश्व की प्राचीन लिपियों का संबंध भारतीय उपमहाद्वीप से रहा है। देश के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त पुरा-अभिलेख तत्कालीन शासकीय, सांस्कृतिक, आर्थिक अथवा सामरिक महत्त्व की सूचनाओं के वाहक स्वरूप है। इन प्राचीन शिलालेखों के पढ़े जाने की कई रोमांचकारी कहानियाँ हैइन लेखों की प्राप्ति से इतिहास प्राणभूत हो जीवन्त हो उठा। यहाँ एक उदाहरण से अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूंगी-लिखित ग्रन्थों के आधार पर सम्राट अशोक को एक क्रूर पुरुष के रूप में वर्णित किया गया परन्तु जब सम्राट अशोक द्वारा लिखायें गये पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण अभिलेखों को पढ़ा गया जिनमें महान सम्राट अशोक के मानवीय गुण, शासन सिद्धांत, जीवन के उच्च आदर्श, धर्म परायणता पर भी प्रकाश पड़ा और मौर्यकालीन अशोक भारत का चक्रवर्ती सम्राट स्वीकृत किया गया, जिसने भारत की सम्प्रभुता एवं अखंडता को विजयी बनाएं रखा। अशोक के शिलालेखों से तत्कालीन युग की संयुक्त परिवार की प्रथा का साक्ष्य, जल, वृक्षारोपण, पशु रख- रखाव के प्रबन्धन का प्रमाण प्राप्त होता है। मौर्यकालीन प्रशस्तियाँ (उपलब्धि एवं प्रशंसायुक्त वर्णन) भारत के इतिहास निर्माण में नींव का पत्थर साबित हुई। इतिहास में उल्लेख है कि सम्राट अशोक के अभी तक 40 से अधिक अभिलेख प्राप्त हो चुके है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी.आर. भण्डार कर महोदय ने केवल अभिलेखों के आधार पर ही अशोक का इतिहास लिखने का प्रयास किया है।


शिलालेख एक मूक साधन है फिर भी इतिहास के निर्माण के मूलाधार है। आज भी कई अभिलेख जो पाषाण निर्मित है भू-गर्भ में दबे पड़े है। कई शिलालेख मौसम की मार एवं उम्र पार होने पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एवं कुछ के अंश नष्ट हो गये। इनकी भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू, राजस्थानी एवं स्थानीय समय की धार के अनुकूल लिखित प्राप्य है। इनमें गद्य-पद्य दोनों विधाओं का समावेश देखा जा सकता है। कुछ मूर्ति अभिलेख (विशेषरूप से जिन मूर्तियाँ) भी ऐतिहासिक श्रृंखला को स्थापित करने का मुख्याधार बने है।


राजस्थान में मानव सभ्यता के विकास का प्राचीनतम सुदीर्घ सिलसिला रहा है। देश के वृहद प्रांत में महापाषाण काल से लेकर नवपाषाण एवं उत्तरपाषाण काल के कई प्रमाण सिद्ध हुए है। यह कहना सत्य ही होगा कि राजस्थान की तपोभूमि सदियों से इतिहासकारों एवं पुरातत्ववेत्ताओं के लिए वरदान सिद्ध हुई है। यहाँ इतिहास सामग्री का विपुल भण्डार है, हाल ही में उत्खनन से प्राप्त हुए अवशेषों ने इस धारणा को और पुष्टि प्रदान की है। उनमें से एक नगर (व्याघ्रपादपुर) ऐसा ही ऐतिहासिक स्थल होने के कारण अपना निजस्व रखता है।


राजस्थान प्रदेश के ह्रदय अजमेर जिला मुख्यालय से लगभग 100 किमी. की दूरी पर स्थित है। व्याघ्रपादपुर अर्थात वराह नगरी जिसे वर्तमान में 'बघेरा' कस्बे के नाम से जाना जाता है। यह कस्बा अरावली पर्वतमाला में बनास नदी की सहायक दाविका (डाई) नदी के किनारे पर केकड़ी नगर से लगभग 20 किमी. उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित है।


बघेरा अपनी ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं धार्मिक महत्ता के लिए राजस्थान में ख्याति प्राप्त रहा है। इसकी स्थापना के विषय में प्रामाणिक स्रोत ‘व्याघ्रपादपुर माहात्म्य' है जिसे स्कन्दपुराण का अंश माना गया है। इस माहात्म्य के अनुसार-इस नगर की स्थापना अयोध्या के राजा मान्धाता के आमात्य शंखसेन ने व्याघ्र ऋषि की स्मृति में की थी। पुरातत्वविज्ञ कार्लाइल महोदय के अनुसारR- नवप्लायोसीन या पोस्टप्लायोसीन युग में जब पृथ्वी समुद्र से बाहर निकलने लगी तो बघेरा के आस-पास का भू-भाग भी इस प्रकार निकले भू-भाग में से रहा होगा, जिस पर सर्वप्रथम मानवी बस्ती बसी। यहाँ पर अद्याविद्य अवशिष्ट कतिपय प्रस्तर स्तम्भों को उत्तरकालीन बौद्ध स्मारक कहा जा सकता है। बघेरा पुरातत्व का विपुल कोष है जो अल्पज्ञात रहा। इस पुरातात्विक स्थल पर शोध का प्रयास लेखिका द्वारा किया गया। बघेरा से प्राप्त शिलालेखों का उल्लेख 'बघेरा इतिहास, संस्कृति और पर्यटन' में भी वर्णित है। बघेरा में स्थित शिलालेखों को तीन खण्डों में विभाजित किया जा सकता है।


(1) जैन मूर्ति अभिलेख (2) राजवंश, ऐतिहासिक घटनाक्रम अभिलेख (3) फारसी, उर्दू अभिलेख


तीर्थकर मूर्तियों की प्रशस्तियाँ (शिलालेख वर्णन)


खडगासन तीर्थंकर मूर्तियों पर अंकित लेखों का उल्लेख.


(क) सं. १२१५ बैसाख सुदि ७ शनौ माधु संघे आचार्य महासेन तत्पुत्रं श्री ऋषभदेव प्रणमति।


(ख) सं. ११९९ चैत्र सुदि १२ नेमिनाथ


(ग) सं. १२१५ बैसाख सुदि ७ श्री माथुर संघे आचार्य महासेन तत् शिष्या आर्यिका ब्रह्मदेवी श्री चन्द्र ब्रह्मदेव प्रणमति।


(घ) सं. १२०३ पणीधर सतुविला को वीरनाथ जिने प्रणमति बैसाख सुदि ९।


(ङ) श्री लाटवागड संघे दिवा श्री रत्नप्रवर दुर्लभसेन लक्षपदा सिद्धि विचारकर्ता श्री पदमसेन गुरुवः सं. ११५९ माघ सुदि ५।


पदमासन तीर्थंकर मूर्तियों पर अंकित लेखों का वर्णन


(क) सं. १२०२ मार्ग (माद्य) वदि ५ सोमे श्री मूलसंघे.. श्री जिणचन्द्र सुत साधु श्री अनंतपाल चन्द्रपालौ प्रणमति नित्यं आराथा। (?) पंडित श्री महेन्द्र देवरू।


(ख) सं. १२१३ ज्येष्ठ सुदि ८ गुरौ श्री माथु.. संघे साधु सेहिल पत्नी राजश्री तत्यारूपुत्रा जिनचन्द्र, महीचन्द्र, गुणचन्द्र पालती सुत नाहड मय श्री ऋषभदेव नित्य प्रणमति।


(ग) देव प्रणमति


(घ) सं. ११९५ बैसाख सुदि १२ बुधदिने कर्मक्षयार्थ प्रतिष्ठतः।


(ड) सं. १२४३ बैसाख सुदि ६ गुरौ व्याघ्ररक वंशीय आमदेव सुत भरतेन श्रीयसे श्री पारसनाथ प्रतिमा प्रतिष्ठापिताः।


बघेरा से प्राप्त जैन प्रशस्तियां नागरी- संस्कृत भाषा में अंकित है। बघेरा के अभिलेखों में ऐतिहासिक महत्व के पुरा अभिलेख है जो तत्कालीन परम्पराओं के साक्षी रहे है।


ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पुरा अभिलेख


विवेच्य क्षेत्र की ऐतिहासिक कृति विशाल एवं भव्य 'तोरणद्वार' के अभिलेख जो विवाह संस्कार की स्मृति का साक्ष्य माना जाता है।


तोरण खड्क्या तीन सौ, चंवरी पदम पचास। बहत्तर मण मिर्ची लगी, अन्न का करो विचार।।


संवत नवो अठवरों, दुई घर हुयो उजास।


ढोला-मारू परणिया, हुयो बघेरा ब्याह।।


देवं बघेरई दीयऊ रे मेलाण।


उचरई.. वेद पुराण।।


बलुआ पाषाण से निर्मित स्थापत्यकला की अनुपम कृति वर्तमान में जीवान्त है। बघेरा के अन्य पुरा-अभिलेख


(क) संवत १.. राजश्री.. ती.. धा. यरू.. राजश्री.. जाकी.. जागीरा..


ख) संवत १..णे.. काती सुद.. जी.. सी.


(ग) श्री.. म.. क्ष .. सु .. द .. फागुण बदी ११..


राजस्थान के कई क्षेत्रों में सूर्य-चन्द्रमा एवं गाय, बछड़े की आकृतियों के लेख भी प्राप्त हुए है जो दानवीरों अथवा सौगंध के रूप में वर्णित होते है। विवेच्य क्षेत्र में भी इस प्रकार के अभिलेख है। ग्राम बघेरा-कणोंज क्षेत्र के लेख पर सूर्य-चन्द्र, एवं पशु आकृतियाँ गाय, शूकर का चित्रांकन अंकित है। घिसावट के कारण लेखन अस्पष्ट है, पाषाण लेख17-18 वीं सदी के प्रतीत होते है। इतिहास में वर्णित मिलता है कि उक्त फलक शपथ-पत्र के समान होते थे-यथा जल अशुद्धि और आखेट पर लगा हुआ है प्रतिबन्ध।


हिन्दू को ३.. और मुस्लिम को ३३.. की सौगन्ध ।।


पंचायत का भी बना हुआ है कानून प्रचण्ड। जो तोड़ेगा प्रतिबन्ध उसको होगा दण्ड।। उर्दू-फारसी पुरा-अभिलेख


यह शिलालेख विवेच्य क्षेत्र की मस्जिद की भित्ति पर लगा हुआ है। पुरा-अभिलेख पर सफेदी के कारण पठनीय नही है लेकिन पाषाण लेखन पर हिजरी सं. पठनीय है दृ


हिजरी 10351


इतिहास के निर्माण में शिलालेख कालपरक प्रमाण है जो महत्ती भूमिका का निर्वाह कर रहे है। इस पुरातात्विक सामग्री में हेरफेर की गुंजाइश बहुत कम होती है इसलिए ये स्रोत विश्वसनीयता की कसौटी पर खरे उतरते है। शिलालेख बोलते पाषाण है जो तत्कालीन भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासनिक व्यवस्थाओं के प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण वाहक है। इन पाषाण लेखों ने इतिहास के कई अनछुए आयामों पर प्रकाश डाला है।